Book Title: Navsadbhava Padartha Nirnay
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 4
________________ शुभ और अशुभ शुभकर्म को पुण्य कहते हैं और अशुभकर्म को पाप, जीवों को साता उपजाने से याने आहार पानी वसा श्रामरणादि देने से पुण्य होता है और दुःख देने से पाप होता है पु. एय से आत्मा की उन्नति और पाप से श्वनंति होती है, इत्यादि अनेक तरह के मजहब और अनेक तरह के धर्म हैं, लेकिन अपनी आत्मोन्नति का उपाय तो कोई विरलेही जानते हैं. जो जीव मोहमयी महा घोर निद्रा से निद्रित हैं वे अपनी आत्मोसति हरगिज भी नहीं करसकते हैं इसही लिये सतगुरुवोंका कहना है हे भव्यजनों ! "जागो, जागो" बहुत दिन मास व्यतीत हुए अनेक दिनों से दिवाकर भ्रमण कर दिवसको विताए, अपार निशाओं में निशाकर सुधामयी चन्द्रिका फैलाई, अनेक तारागणों ने प्रकाश किया, आस पास की नहीं महल्ले शहर की नहीं वहुत कोसों तक आवाज सुनाने वाली नौवते नहीं अनन्त मेघगरनन सुन के . अपारदार कायरों के दिलदुखाने वाली तोपों की आवाज सुनके. भी तुम्हारी निद्रा नहीं गई? श्री प्राचारांगसूत्र में कहा है, ( सयं तेणं गयं धनं ) याने सोया सो धन खोया, अमूल्य धन पास रखके ऐसी निद्रा में गाफिल होना भला क्या समझदारी का काम है? प्रियवरो! एकाग्र चित्त करके सोचो यह निद्रा हमेशा मामू. ली आती है सोही है या और कोई दूसरी है ? अगर मामूली होती तो इतने शब्द सुन के हगिज भी नहीं ठहर सकती, लेकिन इस मोह मित्थ्यात्वमयी निद्राने तो एकक्षणमान भी तुम्हारा पीछा नहीं छोडा है, ज्ञान के नेत्रों से देखो इस निद्रा ने तुम्हारा क्या २ गुण छिपाया है, इससे तुम्हारा कितना नुकसान होरहा है, अमूल्यरत्नागर होके ऐसे गाफिल होना भला क्या समझदारी का काम है ? तुम कौन हो और अब कैसे होरहे हो? तुम हो साक्षात् सच्चिदानन्द स्वरूप निरसन निराकार परमब्रह्म परमात्मा मुखों के भोगने घाले, अनन्त ज्ञान दारशन चारित्र वीर्य तुम्हारे. गुण बुम्हारेही पास हैं, लेकिन इस मोह मित्थ्यात्वमयी निद्रा से निद्रित होके अनन्त चतुष्टयं गुणों को वादिया है । देखो तुमने

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