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अनुभूति होती है, वैसे ही ज्ञान भी आत्मा की निजी संपत्ति है। नन्दी सूत्र उसकी तालिका है। इसको स्पष्ट करने लिए निम्न उदाहरण है
एक सेठ ने अनेक बहुमूल्य रत्नों से परिपूर्ण मंजूषा किसी अज्ञात स्थान में रख दी और साथ ही बही में उसका उल्लेख कर दिया। बही में उन रत्नों की संख्या, गुण, नाम, मूल्य और लक्षण आदि की सूची दे दी । अकस्मात् हृदय की गति रुक जाने से वह सेठ मृत्यु को प्राप्त हो गया । उसने अपने पुत्रों को न उस मंजूषा का निर्देश किया और न वही उनकी नजरों में रखी, कालान्तर में अनायास नही मिली और उस सूची के अनुसार मंजूषा और रत्न मिले। अपनी निजी संपत्ति मिल जाने पर जैसे उन्हें आनन्द की अनुभूति हुई, वैसे ही नन्दी भी आत्मगुणों की बही है । जिसका देववाचक जी ने इतस्ततः बिखरे हुए ज्ञान के प्रकरणों को तद्युगीन आगमों से या ज्ञानप्रवाद पूर्व में से संकलित किया। वह संकलन सौभाग्य से श्रीसंघ को मिला। अथवा जो नन्दीसूत्र पहले व्यवच्छिन्न प्रायः हो रहा था, उसका पुनरुद्धार ५० मंगल गायाओं के साथ किया ताकि भविष्यत् में यह सूत्र दीर्घकाल पर्यन्त सुरक्षित रहे। इसके अध्ययन करने से परमानन्द की प्राप्ति होती है, इसलिए इस आगम का नाम नन्दी रखा है। इसको अर्थविषयक प्रसिद्धि - समाधान कहते हैं। इस क्रम से यदि उपाध्याय या गुरु शिष्यों को अध्ययन कराए तो वह ज्ञान, विज्ञान के रूप में परिणत हो सकता है। कहा भी है
"संहिया य पदं चैत्र, पयत्थो पयविग्गहो । चालाय सिद्धिय चुध्दिहं विद्रि लक्खयं ॥"
इस प्रकार की व्याख्या शैली को अनुगम कहते हैं ।
४. नय - नंगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन नयों की दृष्टि से जो नन्दी पत्राकार अथवा जो कण्ठस्थ है, कोई उपक्ति उसकी पुनरावृत्ति कर रहा है, किन्तु उसमें उपयोग नहीं है, वह भी नन्दी है । ऋजुसूत्र नय, पुस्तकाकार या पत्राकार को नन्दी नहीं मानता। हाँ, जो नन्दी का अध्ययन कर रहा है, भले ही उसमें उपयोग न हो, फिर भी वह नन्दी है, यह नय कष्टस्थ विद्या को विद्या मानता है ।
शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन नय अनुपयुक्त समय में नन्दी नहीं मानते । जब कोई उपयोगपूर्वक अध्ययन कर रहा हो, तभी उसे नन्दी मानते हैं, क्योंकि आनन्द की अनुभूति उपयोग अवस्था में ही हो सकती हैं, अनुपयुक्तावस्था में नहीं, आनन्द से नन्दी की सार्थकता होती है। जिस समय आत्मा आनन्द से समृद्ध नहीं होता, वह नन्दी नहीं । यह है नन्दी शब्द के विषय में नयों का दृष्टिकोण, यह है, उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय की दृष्टि से नन्दी की व्याख्या ।
नन्दी को मूल क्यों कहते हैं ?
उत्तराध्ययन, दशर्वकालिक अनुयोगावर और नन्दी इन सूत्रों को मूल संज्ञा दी गई है। आत्मोत्थान के मूलमंत्र चार हैं, जैसे कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप । उत्तराध्ययनसुत्र सम्यग्दर्शन, चारित्र और तप का प्रतीक है। दशर्वकालिकसुन चारित्र और तप का अनुयोगद्वार सूत्र भूतज्ञान का और नन्दीसूत्र पांच ज्ञान का प्रतिनिधि है। इस दृष्टि से नन्दी की गणना मूल सूत्रों में की गई है। सम्पर दर्शन के अभाव में ज्ञान नहीं, अपितु अज्ञान होता है। जहाँ ज्ञान है, वहां निश्चय ही सम्यग्दर्शन है । ज्ञान के बिना चारित्र नहीं चारित्र और तप की आराधना साधना ज्ञान के द्वारा ही हो सकती है