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मायावी रानी और कुमार मेघनाद बाहर निकाला। दोनों स्त्रियाँ विलाप करती हैं, रोती हैं...। पर कुमार दोनों स्त्रियों को अपने से अलग रखता है। वह उदास-उदास होकर जीता है! न तो उसकी धनुषविद्या काम आती हैं... न उसका निमित्तज्ञान कुछ बताता है। उसकी अद्भुत कलाएँ भी बिल्कुल असहाय सी हो गयी...।।
सच्ची मदनमंजरी की पीड़ा का पार नहीं है...। पति के विरह में वह रोरोकर दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही हैं...। इधर झूठी मदनमंजरी भी वैसी ही दुर्बल बनती जा रही है। यों करते-करते छह महीने बीत गये। एलापुर नगर के बाहर ही कुमार का पड़ाव था। छह महीने पूरे हुए कि एक दिन अचानक वास्तविक मदनमंजरी को, राक्षस का दिया हुआ नागराज से अधिष्ठित कटोरा याद आ गया! वह गुपचुप चली गई...उस तंबू में, जहाँ पर जिनमंदिर था। उसने परमात्मा की पूजा की। फिर फूलों से कटोरे की पूजा करके वह बोली : 'हे नागेन्द्र! आप मेरे पर प्रसन्न बनें! आप तो विनम्र भक्तजनों को सहायता करने के लिये जाग्रत देव हो! यह कोई दुष्ट देव मुझे छह-छह महीनों से सता रहा है!'
तुरंत ही नागराज धरणेन्द्र प्रगट हुए | तंबू के बाहर छुप कर खड़ी हुई बनावटी मदनमंजरी की चोटी पकड़कर नागराज ने उसका घोर तिरस्कार किया। 'अरि दुष्टा, मैं तुझे अभी ही मार डालूँगा | तूने इस दंपति को आफत में डालकर मेरा भयंकर अपराध किया है।' ___ वह बनावटी मदनमंजरी तो बेचारी डर के मारे काँपने लगी...| नागराज घरणेन्द्र के सामने उसकी बनावट चलने वाली नहीं थी। धीरे-धीरे उसने अपना वास्तविक रूप प्रगट किया...। दोनों हाथ जोड़कर नागराज के चरणों में गिरती हुई...दीन-हीन बनकर गिड़गिड़ाने लगी :
'मेरे अपराध माफ करो... ओ नागराज, आपने जिस राक्षस को मार डाला था, मैं उस राक्षस की बहन हूँ | मेरा नाम 'भ्रमरशीला' है । अपने भाई की मौत से मैं अत्यन्त क्षुब्ध थी। आपका तो मैं कुछ बिगाड़ नहीं सकती थी! इसलिये गुस्से में तमतमाकर बदला लेने के लिये मैं इस दंपति के पास आई। पर जैसे मैंने इस कुमार को देखा, मेरा गुस्सा पिघल गया...। यह कुमार मुझे अच्छा लगने लगा। इसका रूप मुझे भा गया । पर मैंने जाना कि कुमार अपनी पत्नी के अलावा किसी स्त्री से बात तक नहीं करता है, तब मैंने मदनमंजरी का रूप रचाया। इस मदनमंजरी को उठाकर मैंने दूसरे प्रदेश में रख देने का सोचा। पर इसके शीलधर्म के प्रभाव के कारण मैं इसको कुछ नहीं कर सकी। मैं
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