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पराक्रमी अजानंद बावजूद जब वैद्यों ने भी हाथ झटक दिये तब हम सब गहरी चिंता में डूब गये। हम सबके चेहरे पर निराशा के घने बादल छा गये। हमारे पूरे परिवार में चिंता और बेचेनी छा गई। न हम किसी को खाना भाता था, न पीना। कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। __एक दिन एक परदेशी आदमी अचानक हमारे घर पर आया । हमने उसका स्वागत किया। आये हुए अतिथि का स्वागत करना हमारा कर्तव्य होता है। हमने उस परदेशी को जलपान, भोजन वगैरह करवाया। वह परदेशी प्रसन्न हो उठा। उसने हमारे घर में बिछोने में बीमार सोये हुए बच्चे को देखा, ध्यान से देखा। कुछ देर उसने सोचा और फिर हम से कहा :
'भाईयों, तुम निराश मत बनो। उदास होने से काम नहीं चलेगा। जहाँ तक मैं सोचता हूँ वहाँ तक वैद्य या अन्य कोई चिकित्सक इस बच्चे की बीमारी को नही मिटा सकता, पर यह बीमारी मिट जरुर सकती है।' _ 'कैसे? क्या आप कोई उपाय जानते हैं?' हम चारों भाई एक साथ उनसे पूछ बैठे।'
'हाँ, हाँ... मैं उपाय जानता हूँ, और तुम्हें बताऊँगा भी। एक 'अग्निवृक्ष' नाम का पेड़ होता है। उसका फल पकाकर यदि इस बच्चे को खिलाया जाय तो इस बीमारी में से इसका छुटकारा हो सकता है।' ___ 'पर वह फल मिलेगा कहाँ पर? क्या आप उस जगह का पता बता सकते हैं?' हमने पूछा। ___ 'हाँ... हाँ... मैं जरुर तुम्हें पता बताऊँगा। 'कादंबरी' नाम के एक घने जंगल में एक यक्ष का पुराना मंदिर है। वहाँ पर उस मंदिर में एक 'अग्निकुंड' है। उस अग्निकुंड में हमेशा आग सुलगती रहती है। उस आग में वह अग्निवृक्ष का फल पड़ा हुआ है। उस कुण्ड में कूद करके उस फल को प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु इसके लिये हिम्मत चाहिए, और मर मिटने की तमन्ना चाहिये।'
इतना कह कर वह परदेशी हमारा अभिवादन करके वहाँ से चला गया । परदेशी की बात सुन कर हमें खुशी हुई। उस फल को प्राप्त करने के लिए तत्पर हुए। और हम चारों भाई यहाँ पर इस यक्ष के मंदिर में आ पहुँचे । अग्निकुंड में आग की लपकती ज्वालाओं को देखकर हम घबरा उठे। हमारी हिम्मत पानी-पानी हो गयी और हम मूढ़ बन कर बैठ गये। क्या करना, कुछ
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