Book Title: Mayavi Rani
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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पराक्रमी अजानंद
१०० सूझता नहीं है! फल को पाना जरुरी है, पर अग्निकुंड में कूदने का साहस हममें नहीं है। यह हमारी कहानी है। बोलो भाई, तुम इसमें क्या कर सकते हो?' ___ अजानंद ने शान्ति से सारी बातें सुनी। उसके शरीर में शौर्य का दरिया उफनने लगा। उसने कहा : 'भाइयों, तुम जरा भी चिंता मत करो। तुम्हारे बेटे की जिंदगी को बचाने के लिये मैं उस अग्निकुंड में कूदूंगा और अग्निवृक्ष का फल लेकर आऊँगा।'
'नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। यह उचित भी नहीं है! कितनी भी ताकत क्यों न हो, पर दूसरे के लिये भला कोई मरने का साहस करेगा? यह तो मौत का खेल है...बच्चे, इसमें तेरा काम नहीं है। तू तेरे रास्ते पर जा भाई! हम चार में से कोई न कोई भाई इस कुण्ड में कूद कर जरुर फल ले आयेगा! ___ अजापुत्र हँस ने लगा। उसका सत्व, उसकी हिम्मत उसका जोश, उसे बराबर उत्तेजित कर रहे थे कुछ साहस कर दिखाने के लिये | उसने कहा : 'बड़े भाई, आप ऐसा मत कहिये | स्वार्थ से भी परमार्थ का कार्य ऊँचा होता है। अच्छे आदमी परमार्थ को पसंद करते हैं। देखो, आकाश में रहे हुए बादल औरों के लिये ही बरसते हैं ना? पेड़ फल देते हैं तो औरों के लिये ही देते हैं ना? और नदियाँ भी औरों की प्यास बुझाने के लिये ही बहती है! मुझे भी परोपकार अच्छा लगता है। मेरा शरीर परोपकार के लिये उपयोगी बनता है तो मुझे बड़ी खुशी होगी। एक बच्चे की जिंदगी को बचाने का ऐसा मौका मैं हाथ से नहीं जाने दूंगा।'
इतना कहते हुए अजानंद ने अचानक अग्निकुण्ड में छलाँग लगा दी। और वह भी ऐसे जैसे कि स्नान करने के लिये पानी के हौज में डूबकी लगाई हो! चारों भाई 'नहीं' 'नहीं' करते हुए खड़े हो गये। एक दूसरे का मुँह ताकते रहे। और कुछ समय गुजरा कि अग्निकुण्ड में से अजानंद हाथ में दो दिव्य फल लेकर कुण्ड के बाहर आ गया | चारों भाई पुतले की तरह स्तब्ध बनकर अजानंद को देखते रहे। उसके शरीर को या उसके कपड़े को आग का स्पर्श तक नहीं हुआ था। उसके चेहरे पर चमक थी, स्मित था। चारों भाई की आँख विस्मय से चौड़ी हो गयी। चारों ने हाथ जोड़कर अजानंद को सर झुकाया और कहा : __ 'ओ वीर-पुरूष! तुम दिखने में कितने छोटे लड़के हो, पर सचमुच तुम लड़के नहीं हो। तुम कोई दिव्य पुरुष लगते हो! हमारे जैसे अनजान और अपरिचित लोगों के लिये अपनी जान की परवाह किये बगैर अग्निकुण्ड में छलाँग लगा दी और दिव्य फल तुम ले आये। तुमने हमें चिंता के सागर में से
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