Book Title: Mayavi Rani
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 153
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद चला। गुरुदेव को वंदना करके विनयपूर्वक गुरुदेव के सामने बैठा । आचार्यदेव ने उसे परमात्मा की पहचान करवाई । सद्गुरु का स्वरूप बताया, धर्म का प्रभाव बताया । अजानंद के दिल में श्रद्धा का भाव पैदा हुआ । उसे बड़ा आनंद आया । १४३ गुरुदेव ने उसे आत्मा की पहचान करवाई । आत्मा पर लगे हुए कर्मों का स्वरूप बताया। पाप और पुण्य की समझ दी । परलोक की बातें सुनाई । इसके बाद तो जब तक आचार्य देव वहाँ पर रुके तब तक अजानंद गुरुदेव के पास जाता-आता रहा। गुरुदेव के सतत संपर्क से उसकी आत्मा में वैराग्य की भावना जागृत हुई। उसे न रहा राज्य पर प्रेम या न रहा रानियों पर मोह । संसार छोड़कर साधु बनने की इच्छा उसके मन में जागी । उसने अपने बड़े राजकुमार निजानंद को बुलाकर कहा : 'वत्स, मुझे अब राज्य का या किसी भी प्रकार के सुख का मोह नहीं रहा है। मैं गुरुदेव के चरणों में दीक्षा लेना चाहता हूँ। यदि मैं संसार के सुखों का त्याग नहीं करता हूँ तो मर कर अवश्य मैं नरक में जाऊँगा । फिर यह मनुष्य जीवन वापस मिले भी या नहीं ? इसलिए मैं संयम लेकर मेरी सद्गति निश्चित करना चाहता हूँ। मैं तेरा राज्याभिषेक करूँगा। तू प्रजा का पालन न्याय से करना । चंद्रानना नगरी में राजकुमार निजानंद के राज्याभिषेक की घोषणा की गई। राजा अजानंद संसार का त्याग करके दीक्षा लेनेवाले हैं, यह जानकारी भी प्रजा को हुई। भव्य महोत्सव का आयोजन किया गया। राजकुमार का राज्याभिषेक काफी शानदार ढंग से किया गया। राजा अजानंद परिवार के साथ आचार्यदेव के पास गया । उसने आचार्यदेव को विनती की : 'प्रभो, मुझे चारित्र धर्म देकर, इस संसार से मेरा उद्धार करने की कृपा करें ।' रानियों ने भी गुरुदेव को वंदना की : 'प्रभो, हमें भी चारित्र धर्म देने की कृपा करें। For Private And Personal Use Only गुरुदेव ने राजा और रानियों को दीक्षा दी। रानियाँ साध्वी समुदाय में रहकर ज्ञान-ध्यान और त्याग - तप की आराधना करने लगी । अजानंद मुनि

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