Book Title: Mayavi Rani
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 133
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२३ इस महान तीर्थ की रक्षा के लिए चक्रवर्ती के पुत्र इतने उत्सुक एवं तत्पर थे कि उन्होंने नागकुमार देवों की कड़ी चेतावनी की भी परवाह नहीं की । उन्होंने स्वयं गंगा में से पानी लाने के लिए नहर खोद डाली... और नहर के जरिये पूरी खाई में गंगा का पानी फैल गया। अब जिस जगह से मिट्टी गिर सकती है... वहाँ से पानी तो जाने का ही ! नागकुमार देवों के महलों पर पानी गिरने लगा... . देव बौखला उठे... गुस्से में दनदनाते हुए वे ऊपर आये... और सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों को जीते-जी जलाकर राख कर दिये ! पर तीर्थरक्षा की तमन्ना में मरे हुए वे सब मर कर बारहवें देवलोक में देव बने ।' अजानंद स्तब्ध होकर सारी कहानी सुन रहा था । आँखें मूँदकर उसने सगरपुत्रों को भावभरी वंदना की । पुनः उसने मंदिर में जाकर चौबीस तीर्थंकर भगवंतो की वंदना की। बाहर आकर उसने देव से कहा : 'अब तुम मुझे उस बावड़ी के पास छोड़ दो, जहाँ से मैं यहाँ आया था!' देव ने अजानंद को उठाकर अपनी दिव्य शक्ति से बावड़ी के किनारे पर रख दिया और वह अपने स्थान पर चला गया। ६. चोरी का इल्जाम बावड़ी के पास एक पेड़ के नीचे नर- वानर और नर-मगर सोये हुए थे। अजानंद भी उन दोनों के पास जाकर सो गया । उसने इन्द्र का दिया हुआ वस्त्र ओढ़ लिया था। सुबह में जब वे दोनों मित्र जगे ... उन्होंने अपने पास किसी को सोये हुए देखा। वे आश्चर्य से सोचने लगे : 'अरे, इतना कीमती दिव्य वस्त्र ओढ़कर यहाँ पर कौन सोया है ? यह कौन होगा?' वे दोनों अजानंद के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगे। इतने में सोया हुआ अजानंद जगा । दिव्य वस्त्र दूर करके वह सहसा खड़ा हो गया! उसे देखकर वे दोनों एक साथ खुशी से चिल्ला उठे : 'अरे... तुम कब आये ? यहाँ आकर कब सो गये ?' अजानंद ने उनसे अष्टापद की यात्रा की सारी बात कही। तीनों वहाँ से आगे की सफर को चल पड़े। अजानंद के दिल-दिमाग पर अपने भविष्य के विचार आ-आकर टकरा रहे थे। 'मुझे दुनिया की कितनी तरह की विचित्रताएँ देखने को मिली ! पशु को मनुष्य बनानेवाले अग्निवृक्ष का चूर्ण मुझे मिला । मनुष्य को पशु बना देनेवाला For Private And Personal Use Only

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