Book Title: Mayavi Rani
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 97
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! __'महाराजा, जिनदत्त सेठ ने चोर के साथ बहुत देर तक बातें की थी। उसके लिये वे पानी भी ले आये थे।' राजा का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। उसने कहा : 'जिनदत्त सेठ राजद्रोही है... उनके पास चोरी का माल सामान भी होगा। लगता है चोर के साथ उनकी सांठगांठ होनी चाहिए। जाओ सैनिकों, जाकर उसे बेड़ी में बाँधकर यहाँ मेरे समक्ष हाजिर करो!' सैनिक सेठ को पकड़ने के लिये चले। रूपा चोर मरकर पहले देवलोक में देव हुआ था। देव होकर तुरंत ही उसने सोचा : 'मैं यहाँ पर कहाँ से आया हूँ? किसके प्रभाव से मैं देव हुआ हूँ?' देव को 'अवधिज्ञान' नाम का दिव्य ज्ञान होता है। उस ज्ञान से देव हजारों... लाखों...करोड़ों मील दूर तक देख सकता है। रूपा देव ने अवधिज्ञान से उत्तरमथुरा नगर को देखा। जिनदत्त सेठ को देखा | और उसका सर झुक गया : 'ओह, इन्हीं जिनदत्त सेठ ने मुझे नवकार मंत्र दिया था... मेरे ऊपर इनका महान उपकार है। मैं इनका उपकार कभी नहीं भूल सकता! मैं यदि इनके उपकारों को भुला दूं... तो फिर मेरे जैसा पापी दूसरा कौन होगा इस दुनिया में? उन्हीं के प्रताप से तो मैं देव हुआ हूँ। कहाँ मैं रूपा चोर था! और कहाँ मैं आज यहाँ पर वैभवशाली देव बना हूँ!' अवधिज्ञान से रूपदेव ने सेठ को देखा... और सेठ को पकड़ने के लिये जा रहे सैनिकों को भी देखा...और देव को गुस्सा आया : 'अरे...ये सैनिक तो मेरे उपकारी सेठ को पकड़ने के लिये जा रहे हैं! ठीक है, अब तो मैं ही इन्हें मजा चखाऊँगा। देखता हूँ मैं भी!' और देव ने भेष बदलकर एक दुबले-पतले आदमी का रूप बनाया। हाथ में बड़ा डंडा लेकर खड़ा हो गया, सेठ की हवेली के दरवाजे पर। __ सैनिक लोग हवेली के दरवाजे पर आये तो उस देव ने उनकी मजाक उड़ाते हुए कहा : 'अरे ओ मोटे-मोटे भीमदेवों...आप यहाँ पर क्यों आये हैं?' सैनिकों ने गुस्से में लाल-पीले होकर कहा : 'क्यों रे पतलू, मरना है क्या? जबान सम्हाल के बोल | चल हट यहाँ से। हमें जाने दे हवेली में!' रूपादेव ने उनको और सताया : For Private And Personal Use Only

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