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चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! लगा...। ज्यों-ज्यों अंजन धुलने लगा, रूपा प्रत्यक्ष दिखने लगा। बाहर खड़े हुए सशस्त्र सैनिकों ने वेग से आकर रूपा को पकड़ लिया।
राजा पद्मोदय का गुस्सा रूपा पर खौल उठा | उसने कड़क कर सैनिकों को आज्ञा दी-'इस दुष्ट चोर को नगर के बाहर ले जाओ और शूली पर लटका दो। इसके साथ यदि कोई आदमी कुछ बात करने की कोशिश करता दिखाई दे तो उसे राजद्रोही समझकर गिरफ्तार कर लेना और पकड़कर मेरे पास हाजिर करना।'
सैनिक रूपा को ले गये। वहाँ शूली लगाई गई। और रूपा को शूली पर लटका दिया गया। उसका पेट बींध गया। जमीन पर खून बहने लगा। फिर भी उसकी मौत नहीं हुई। राजा के सैनिक इधर-उधर थोड़ी दूर पर बैठे हुए पूरा ध्यान रख रहे थे कि कोई रूपा के साथ बात तो नहीं कर रहा है ना? ___ एक दिन गया...दूसरा दिन बीता... तीसरा दिन भी बीतने की तैयारी में
था। सूरज क्षितिज पर ढल चुका था। उस समय, उसी नगर के एक सेठ जिनदत्त अपने बेटे जिनदास के साथ, उस रास्ते से गुजर रहे थे। जिनदास ने रूपा को शूली पर लटकते हुए देखा...उसको दया आ गई। उसने अपने पिता से पूछा :
'पिताजी, यह आदमी कौन है?' 'बेटा, यह चोर है।' 'पिताजी, इसे इतना दुःख क्यों मिला है?' 'बेटा, उसने चोरी का पाप किया है, उसने कइयों को मारा है। उसने मांस खाया है। उसने तरह-तरह के पाप किये हैं। उसका फल वह भुगत रहा है। पापों का फल तो भुगतना ही पड़ता है।' __पिता-पुत्र का वार्तालाप रूपा सुन रहा था। उसने इशारे से पिता-पुत्र को
अपने पास बुलाया। वह बोल नहीं पा रहा था। उसका सर कौओं ने नोच लिया था। लोमड़ी ने उसके पैर काट खाये थे। फिर भी बड़ी मुश्किली से उसने धीरे से कहा : ___ 'सेठ, तुम्हारी बात सही है...मेरे पापकर्म उदय में आये हैं। तुम तो दया के सागर हो, उपकारी हो, मुझे बड़ी प्यास लगी है, मुझे थोड़ा पानी पिलाओ सेठ!' रूपा सेठ के सामने करूण स्वर में पुकार उठा।
गायें परोपकार के लिये दूध देती हैं, पेड़ औरों के लिये फल देते हैं और
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