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चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! नदियाँ परोपकार के लिये ही बहती हैं, उसी तरह सज्जन लोग परोपकार के लिये ही प्रवृत्ति करते हैं।
जिनदत्त सेठ ने कहा : 'भाई, मैं पानी लेने के लिये जाता हूँ, परन्तु जब तक मैं पानी लेकर वापस लौ, तब तक तुझे एक मंत्र देता हूँ, उसका जाप करते रहना। यह मंत्र मेरे गुरू ने मुझे आज ही दिया है। मैने बारह बरस तक उनकी सेवा की थी इसलिए उन्होंने प्रसन्न होकर यह मंत्र दिया है।'
रूपा ने कहा : 'इस मंत्र के जपने से क्या होता है?'
सेठ ने कहा : 'इस मंत्र के जपने से दुःख दूर होता है, सुख मिलते हैं, देवों की संपत्ति मिलती है, विपत्ति का नाश होता है, पापों का नाश होता है, मोह दूर होता है। इस मंत्र का नाम है श्री नमस्कार महामंत्र।'
रूपा ने कराहते हुए पूछा : 'ओ उपकारी, आप मुझे वह मंत्र देने की कृपा करें... आप पानी लेकर आओगे तब तक मैं उस मंत्र का जाप करूँगा।'
सेठ ने रूपा को श्री नमस्कार महामंत्र सिखलाया और सेठ स्वयं पानी लेने के लिये गये। सेठ पानी लेकर आये, इससे पहले तो, रूपा नवकार मंत्र का स्मरण करता हुआ आखरी साँस भरने लगा...और उसकी आत्मा देह का पिंजरा छोड़ कर उड़ गई। पर मरते समय उसके होठों पर नमस्कार महामंत्र था।
जिनदत्त सेठ जब पानी लेकर लौटे तब उन्होंने देखा कि रूपा की आँखें शांत थी, दोनों हाथ जुड़े हुए थे। उसका प्राणपखेरु उड़ चुका था। उन्होंने अपने बेटे से कहा : 'बेटा, यह चोर समाधिमृत्यु प्राप्त करके स्वर्गवासी हो गया है।'
जिनदत्त ने कहा : 'पिताजी, सत्समागम का ही यह प्रभाव है। सत्संग से जीव के पाप दूर हो जाते हैं, सत्संग से बुद्धि की जड़ता दूर हो जाती है। सत्संग से मान सम्मान मिलता है। सत्संग से यश फैलता है...और सत्संग से मन भी प्रसन्न एवं स्वस्थ रहता है।'
पुत्र की बात सुनकर सेठ को बड़ा संतोष हुआ। वे पुत्र को साथ लेकर अपने गुरुदेव के पास गये। गुरुदेव को सारी घटना बतायी। रात वहीं पर धर्मशाला में बिता कर, दूसरे दिन सबेरे उपवास करके समीप के जिनमंदिर में जाकर सेठ प्रभुभक्ति करने लगे।
रूपा चोर मर गया। इसके बाद दूर बैठे हुए सैनिक राजा के पास गये। राजा से जाकर कहा :
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