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राजकुमार अभयसिंह
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सैनिक तो सारे के सारे बुद्ध की भाँति देखते ही रहे आँखे फाड़ कर! लोग भी आश्चर्य से स्तब्ध रह गये। अभयसिंह आराम से सीधा अपने घर पर पहुँच
गया।
सैनिकों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया :
'महाराजा, गजब हो गया ! हम हाथी को घेर कर खड़े रहे... तलवारें खींच कर खड़े रहे... पर इतने में तो वह हाथी पर से ही न जाने कहाँ अदृश्य हो गया!'
सैनिकों की बात सुनकर राजा मूढ़ सा हो गया । वह कुछ भी नहीं बोला । सैनिक सब चले गये । राजा को कुछ सूझ नहीं रहा था ।
राजा चिंता में डूबा हुआ बैठा था। इतने में राजकुमारी की धावमाता वसंतसेना ने आकर राजा को प्रणाम किया। राजा ने अनमनेपन से पूछा : 'अभी इस वक्त क्यों आई है, वसंतसेना ?'
‘महाराजा, एक जरुरी काम से आई हूँ इस वक्त । आपको मालूम ही है कि राजकुमारी को कोई भी वर पसंद नहीं आ रहा है । साक्षात् रूप के दरिये जैसे राजकुमार के चित्र बताने पर भी उसे किसी के प्रति प्यार या अनुराग नहीं जग रहा है।'
'तेरी बात सही है... वसंतसेना, मुझे भी इसी बात की चिंता है।' राजा बोला ।
‘महाराजा, अब आपकी वह चिंता दूर हो जायेगी । राजकुमारी का मन एक युवा के प्रति अनुरक्त हो गया है। वह जवान है सेठ प्रियमित्र का पुत्र अभयसिंह! राजकुमारी को उसने बचाया भी है। उसे देखकर, उसके पराक्रम को देखकर राजकुमारी उसी के साथ शादी करने की जिद्द कर रही है।'
‘परन्तु क्या क्षत्रिय कन्या बनिये के बेटे के साथ शादी करेगी ?' राजा का गुस्सा भड़क उठा ।
'महाराजा, मैंने उससे यह बात कही । अभयसिंह बनिये का बेटा है... .J तो क्षत्रियकन्या है... तुम्हारी शादी जमेगी नहीं ! शोभा नहीं देगी!'
'फिर क्या कहा उसने ?'
'उसने कहा कि मुझे नहीं लगता है कि इतना पराक्रमी युवा बनिया हो । मुझे तो यह काई राजकुमार ही लगता है। यदि वह राजपुत्र नहीं होता तो मेरे हृदय को जीत नहीं सकता था । और शायद... वह राजकुमार हो या न भी
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