Book Title: Mayavi Rani
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 79
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख राजा के दिल में वैराग्य का भाव हिलोरे लेने लगा। उसने सभाजनों को संबोधित करते हुए कहा : 'प्रजाजनों, यह मनुष्यजीवन क्षणिक है। संसार के सुखभोग रोग जैसे हैं। समृद्धि हवा की भाँति चंचल है | शरीर अनेक रोगों से भरा हुआ है। स्वजनों के संबंध स्वार्थ से भरे हुए हैं। मौत प्रत्येक आदमी के साथ साया बनकर चल रही है...फिर भी अज्ञान और अवश जीवात्मा धर्म को समझते नहीं। धर्म को स्वीकार करते नहीं। पाप करते रहते हैं। आत्मा को दुःखी करते है ! दूसरे जीवों की हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, चोरी और दुराचारसेवन करते हैं, इसके बदले में वे ऐसे पाप बाँधते हैं कि जिससे उनको नरक में जाना पड़ता है...। ओ मेरे प्रिय प्रजाजन, तुम धर्म का आचरण करो।' __ यों कहकर राजा स्वयं आत्मचिंतन में डूब गये। शरीर और आत्मा की जुदाई का ज्ञान उन्हें हुआ | उनकी आत्मा में अपूर्व समताभाव प्रगट हो उठा। और चिंतन की धारा में बहते-बहते राजा को केवलज्ञान प्रगट हो गया! राजसिंहासन पर ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी।। उसी समय देवलोक से हजारों देव वहाँ विजयनगर में उतर आये। राजा को साधु का वेश दिया । समग्र राजसभा स्तब्ध होकर सोच रही थी...' यह सब क्या हो रहा है?' देवों ने राजसभा में घोषणा की : 'महाराजा जय को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है।' देवों और प्रसन्नता से नाच उठे नगरवासियों ने केवलज्ञान का भव्य उत्सव मनाया। स्वर्ण के सुहावने कमल पर बिराजमान होकर जय केवली भगवान ने धर्म का उपदेश दिया। इसके बाद गाँव-गाँव में और नगर-नगर में पदार्पण करते हुए जय महामुनि ने जीवदया का सबको उपदेश दिया। 'तुम खुद जियो और औरों को जीने दो! जैसे तुम्हें दुःख पसंद नहीं है... वैसे और जीवों को भी दुःख अच्छा नहीं लगता है...तुम किसी भी जीव को दुःख मत दो! सभी के प्रति मैत्री-प्रेम और करुणा का भाव रखो। __ कई बरसों तक लोगों को सच्चे ज्ञान का दान देकर जय केवलज्ञानी मोक्ष में गये। शरीर और कर्मों के बंधन से वह मुक्त हो गये! For Private And Personal Use Only

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