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मरणकण्डिका
उक्तं शम्दे रसे रूपे, स्पर्श गन्धे शुमेऽशुभे । रागद्वेषविधानं यत्रावाचं प्रणिधानकम् ॥११८।। मान माया मद क्रोध, लोभमोहादिकल्पनम् । अनिद्रिया श्रयं ज्ञेयं, प्रणिधानमनेकधा ॥११॥ तपस्तपोऽधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेलनं । स तपो विनयोऽवाचि, ग्रंथोक्तं चरतो यतेः ॥१२०॥ कायिको वाचिकश्चैतः, पंचमो विनयस्त्रिधा। सर्वोप्यसौ पुनधा, प्रत्यक्षेतर भेदतः ॥१२॥ संभ्रमो नमनं सूरेः, कृतिकाजलिक्रिया । सम्मुखं यानमायाति, यास्यनुवजनं पुनः ॥१२२॥
अर्थ-शुभ और अशुभ शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गन्ध में जो राग द्वेष होता है उसे इन्द्रिय प्रणिधान जानना ।।११८।।
अर्थ-मान, माया, मद, क्रोध, लोभ, मोह आदि भाव मन में उत्पन्न होना अनिन्द्रिय प्रणिधान है वह अनेक प्रकार का है ।।११।।
[सब प्रकार के प्रणिधान का त्याग कर अपने चारित्र को उज्वल बनाना चारित्र का विनय है।]
चौथे तप विनयका वर्णनअर्थ-बारह प्रकार के अनशन आदि तपमें और अपने से जो साधु अधिक तपस्वी हैं उसमें भक्ति का होना तप का विनय है । जो साधु जन तप में अपने से कम हैं उनका तिरस्कार नहीं करना यह भो तप बिनय है, शास्त्रोक्त आचरण करने वाले साधु के इसप्रकार तप का विनय होता है ॥१२०॥
___ अब उपचार नामका पांचों विनय बतलाते हैं
अर्थ---उपचार विनय तीन प्रकार का है-कायिक, वाचिक और मानसिक । पुनः उन तीनों विनयों के दो-दो भेद हैं.---प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।१२१॥
कायिक विनय का वर्णन चार श्लोकों द्वारा करते हैं
अर्थ-आचार्य आदि आने पर उठकर खड़े होना, नमन करना, अंजली बद्ध नमस्कार, आचार्य भक्ति आदि बोलकर नमस्कार रूप कृतिकर्म करना, आचार्य आदि