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मरण कण्डिका
वैमानिकः स्थलं यातो ज्योतिष्को व्यंतरः समम् । गर्ता च भावनस्तस्य गतिरेषा समासतः ॥२०७२।।
छंदः उपजातिइदं विधान जिननाथदेशितं ये कुर्वते पहनते त्र भक्तितः । प्रादाय कल्याणपरंपरामिमे प्रयांति निष्ठामपनीतकल्मषाम् ॥२०७३।।
॥ इति आराधकांग त्यागः ॥ भगवतोऽत्र ते शूराश्चतुर्बाराधनां मुशा। संघमध्येप्रतिज्ञाय निर्विघ्नां साधयन्ति ये ॥२०७४।। से धन्या जानिनो धीरा लब्धनिःशेषचितिताः । यरेषाराधना देवी संपूर्ण स्ववशीकृता ॥२०७५॥ कि न तै वने प्राप्तं वंदनीयं महोदयः । लोलयाराधना प्राप्ता परेषा सिद्धिसंफली ॥२०७६।।
इन समस्त विषयोंकी जो महामना श्रद्धा करते हैं, इन सपूर्ण आराधना विधिको भक्तिसे स्वयं करते हैं, वे कल्याण परंपरा-मनुष्य तथा देवोंके सुखको प्राप्तकर अंतमें कर्ममलों को दूरकर सिद्धालयमें निवास करते हैं-मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं ।।२०७२।।२०७३।।
इसप्रकार अाराधक अंग त्यागनामा चालीसवां अधिकार पूर्ण हुआ।
चार प्रकारको आराधनाको करनेवाले आराधक मुनिजनोंको प्रशंसा-स्तुति करते हैं
वे मुनिराज शूर हैं, पूज्य हैं, जिन्होंने संघके मध्य में चार प्रकारको आराधना को हर्षपूर्वक स्वीकार करके-समाधिमरण करनेको प्रतिज्ञा लेकरके उसको निर्विघ्न तथा पूर्ण किया है । वे ज्ञानी मुनिजन धन्य हैं, धीर हैं जिन्होंने अपने चितित समस्त संयम तप आदिको पाया है । जिनके द्वारा यह संपूर्ण आराधना देवी स्ववशमें कर ली गयी है । जिन्होंने लीलामात्र से सिद्धि रूप फलको देनेवालो यह आराधना प्राप्त करली है उन महापुरुषोंने इस विश्व में किस वंदनीय श्रेष्ठ पदको नहीं पाया ? सब कुछ श्रेष्ठ वंद्य पदको पाया है । क्योंकि सर्व वंद्य पदोंमें महावंद्य जो सिद्धिपद है उसको जिन्होंने पाया उन्होंने सर्व वंदनीय पद पाया हो है ।।२०७४।।२०७५॥२०७६।।