Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

View full book text
Previous | Next

Page 651
________________ अवीचार भक्त स्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार [१११ प्राराध्याराधनादेवीं प्राशुकारं मृतावपि । केचिसिध्यन्ति जायन्से केचित मानिकाः सुराः॥२०६८।। प्रमाणं कालबाहुल्यमस्य नाराधनाविधेः । तीर्णा मुहूर्तमात्रेण बहवो भवनीरधिम् ।।२०६६।। -- - देखकर उसी प्रकारसे साधुजन उस उस मरणको करनेको तैयार रहते हैं अर्थात् जिसका जंघाबल घट गया है और रोग भी असाध्य हो रहा है तब वह निरुद्ध अविचार भक्त प्रत्याख्यान मरणको स्वीकार करता है । तथा जिसके उपसर्ग या अचानक तीन शूल आदि पाये हैं और निकट आचार्य आदि मौजूद हैं तो उनके पास आलोचना कर पाहार का यावज्जीव त्याग करके जो साधुमरण करते हैं वह निरुद्धतर अविचार भक्त प्रत्याख्यान है । घोर उपसर्ग या रोग आया और जिसमें गुरुकी निकटता नहीं है तथा इतना समय ही है कि उनके पास आलोचना कर सके, अतः अपने हृदयमें जिनेन्द्रको साक्षी करके आलोचना करके आहार आदिका त्यागकर प्राण छोड़नेवाले साधुके निरुद्धतम या परम निरुद्ध आयचार भक्त प्रत्याख्यानमरण होता है। निरुद्ध, निरुद्धतम और निरुद्धतर अवीचार भक्त त्यागके स्वरूपको ज्ञात कर कोई प्रश्न करे कि-इस प्रकार शीघ्रतासे अल्प समयमें मरण करनेवालेके आराधनाकी सिद्धि किसप्रकार होगी? तो इसका उत्तर देते हैं-चार आराधना रूप देवीका शीघ्रतासे आराधना करके मरणयाले मुनि भी कोई सिद्धपदको भी प्राप्त करते हैं तथा कोई वैमानिक देव भो हो जाते हैं अर्थात् आराधनाको शीघ्रतासे करनेपर भी मुक्त या देवपर्यायको मुनिजन प्राप्त कर लेते हैं। क्योंकि रत्नत्रयकी आराधनाको विधिमें कालको बहुलता को मुख्यता नहीं होती अर्थात् जो बहुत दिनोंतक ममाधिको विधि चलती रहे वह श्रेष्ठ है उसीसे उच्चगतिको प्राप्ति होती है, और जिसमें उक्त विधि अल्पकाल में होती है वह उच्चगतिका कारण नहीं है ऐसा नहीं समझना । समाधिमें तो परिणामों को शुद्धि अपेक्षित है । बहुतसे मुनियोंने अन्तर्मुहूर्त मात्रमें रत्नत्रयको आराधना करके संसारसागरको पार किया था-मोक्ष प्राप्त किया था ।।२०६८॥२०६६।। देखो ! विवर्द्धन नामका राजा चिरकालसे-अनादिकाल से मिथ्यात्वसे भावित था-मिथ्याइष्टि था, वह आदिनाथ भगवान के चरण सानिध्य में-उनके समवशरणमें

Loading...

Page Navigation
1 ... 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749