Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 694
________________ ६५४ ] मरणकण्डिका एषेव परमो लाभ एव परमं मतम् । एषेव परमं तस्वमेव परमा गतिः ॥१५॥ एतस्या दुर्लभं वहि त्रिलोके कतमत्सुखम् । प्रतः शरणमेषका भवताम्मे भवे भवे ॥१६॥ छंद-शार्दूलया सर्वज्ञहिमाचलावपसता शीलप्रवाहास्मिका। यासद्धिसमषितर्गणधरै राराधिता निर्मला । या दुरभवासुलाहतनणां निर्धापणी स्यधुनी । सा यः पापविशोधनाय शुभवा भूयात्सदाराधना ॥१७॥ छंद-शार्दूलया सझानसमृद्धिनालकलिता सम्यक्त्वसत्कणिका । या चारित्रपलाशसंचर्याचता द्वघा तपोभासुरा ।। या भस्योत्तमषट्पदैः परिवृता नैःसंग्यपद्माकुला। सा बोऽस्यावतापमुज्ज्वलगुणराराधना पधिनी ।।१८।। उत्तम मत, उत्तम तत्त्व है और यही परमगति है ।।१५।। जिस व्यक्तिको इस आराधना को प्राप्ति हुई है उसको कौनसा सुख दुर्लभ है ? अत: मुझे यह भवभवमें शरणभूत होवे ॥१६॥ सर्वज्ञरूपी हिमाचलसे इस आराधनारूपी गंगाकी उत्पत्ति हुई है, यह शीलरूप जलप्रवाहसे युक्त है ऋद्धि संपन्न गणधर द्वारा मान्य है, निर्मल है, दुर्वार संसारके दुःखसे पीड़ित पुरुषको आनंदकारक ऐसो यह आराधना गंगा पाप लोगों के पापरूप मलको शुद्धिके लिये होवे तथा सदा पुण्यदायक होवे ।।१७।। सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि होना ही जिसका नालदण्ड है, सम्यक्त्वरूपी कणिकासे युक्त तेरह प्रकारके चारित्ररूप पत्र समूहवाली, दो प्रकार के तपसे प्रफुल्लित भव्य जीवरूप भ्रमरोंसे वेष्टित, निष्परिग्रहता रूप कमलोंसे व्याप्त ऐसी यह आराधनारूपी पद्मिनी उज्ज्वल गुणों द्वारा आराधना करनेवाले तुम लोगोंका भवसंताप दूर करे ।।१८।। यह आराधना रूप गंगानदी, समस्त प्रास्रवोंको रोकती है, शरीर में उत्पन्न हुए रागादिमलको दूरकर गुणवान भव्यजीवोंको इष्ट सुन्दर ऐसा सिद्धि पद देती है, सल्लेखनाके धारक पुरुषोंको देवों द्वारा वंदनीय

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