Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 739
________________ यो दृश्ये सेवते घोगं योगः कर्मास दुष्टो यो सुनिदिशुद्धात्मा योग्यं पूर्वोदितं कृत्वा यौवनेन्द्रिय लावण्ये रत्नत्रये यतो यश्नः रस्तत्रयं विराध्यामि रस देहसुखाना स्था रत्नत्रये विधातव्यं रहस्य भेदिना सेन रहस्यस्य कृते भेदे रक्तस्प कृषि रागेण रसेन पीतं जतुना प्रपूर्ण तो युव संगत्या जो धुनी हृदयपुनीते रक्षण स्थापनाडीनि रक्षणाय मता तेच रणारं वरं मृत्यु यं जगत् सार कुलित चिस्य रत्न संभूत पात्रस्था रश्नयकुठारेण राजन्यः सर्वदा योग्दा राग पाषिक सहयो राग द्वेषा बायाकृत्प राग द्वेष कषायाक्ष यो रा क्लोक [सं० पृष्ठ सं० १९२३ XX= १९२४ ५५८ १९३७ ५६२ २१०० ६१४ १११० બ १८२ २४८ २५८ श्लोक-सूची ५०७ ५०८ ५६५. ६११ ११२६ ११३६ १२२० १२४२ १६०१ १७२६ १७३९ १७५७ २०१० ३१० ५. ६४ ७९ ६० १५४ १५४ १८१ १८४ ३१५ ३१९ ३४५ ३५० ४५९ ४९८ *** ५०६ ५८४ २३ २७१ ४१७. १४३ ५४७ १६० 주 राग द्वेषादिभिरना राजकार्यावुरा सम्य राग द्वेष सब कोष रागद्वेषो मदोवा रामा वर्चोमध्यवर्ती मनुष्यः राम्रो मनोहरे पम्ये राति मातरोऽष्टो रामस्य जायदस्य राद्धान्त सचिवाः सन्तः रागद्वेष को मार मोदा रागद्वेष मद कोष रागद्वेष मय कोष लोभ राम हेतु पराधीनं रूप गंध रस स्प रूपं संतमसि इष्टुं रुद्रः पाराशरी नष्टो कर्दम दुर्गम दुर्भ रूप शब्ध रस स्पर्श गंधासक्ता रूप शब्द रस स्पर्श गंधान कविता पूजनीयोऽपि रूपे भान त रूप गंध रस स्पर्श रोक्का जन्तवो भक्त्या रोषो दुरुतशे यस्य रोग मारि चौर रि रोड' चतुर्विषं ध्यानं ये मारो त्रिया स्वत्वा [ ६८ श्लोक [सं० पृष्ठ सं० १७२ १६३ २५४ २७५ ३१३ **** ३६४ ४२५ ४६२ ५१३ ५३८ ૬૪ ६४५ ५६७ ६४४ ८६१ ९५६ १११७ १२२६ १२६० १४६६ १६१७ १७८३ १८६० २२१९ २२२६ ५४६ १००४ ११५४ ११९१ १४२१ १४२२ १४४३ १४६१ २२२४ ५२ ७३ ७८४ १७८६ १७८९ १६६ २८८ ३२२ ३३७ ४१० ४१० *** ४३१ ६४५ १६ R २३३ ५१६ ५१६

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