Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 664
________________ ६२४ मरण कण्डिका शस्त्रग्रहणतः स्वार्थः शकटालेन साधितः । कुतोऽपि हेतुतः कर नंदे सति महीपतौ ॥२१४८॥ अकारि पंडितस्येति सप्रपंचा निरूपणा । इदानीं वर्णयिष्यामि मरण बालपांडतम् ॥२१४६॥ ॥ इति पंडितभरणम् ॥ मारनेका जाल रचा । उस दुष्टने नौकरोंसे पूछा कि कोई ऐसा वीर है जो जयसेनको मार सकता हो । तब एक हिमारक नामके व्यक्तिने इस कार्यको करना स्वीकार किया । वह दुष्ट हिमारक श्रावस्तीमें आकर कपटसे उन्हीं यतिवृषभ आचार्यके समीप मुनि बन गया। राजा जयसेन दर्शनार्थ प्रतिदिन आया करता था। एक दिन अपने नियमानुसार दर्शनार्थ आया, प्राचार्यके निकट धर्मचर्चा आदि करके नमस्कार कर जाने लगा कि मुनि वेषधारी उस दुष्ट हिमारकने राजाको शस्त्रसे मार दिया और स्वयं तत्काल भाग गया । आचार्य इस आकस्मिक घटनाको देखकर सोचने लगे। उन्हें राजाको मृत्युसे संघके ऊपर आनेवाली घोर आपत्तिसे बचाने का अन्य उपाय नहीं दिखा अतः सामने दिवाल पर "यह अनर्थ किसोने जैनधर्मके द्वेषसे किया है" इतना लिखा और तत्काल वहांपर पड़े उसी शस्त्रसे घातकर सन्यास ग्रहण कर प्राण त्याग किया। जयसेन राजाके पुत्र वीरसेनको अपने पिताकी मत्युके समाचार मिले। वह उस स्थानपर आकर देखता है तो राजाके निकट आचार्यको भी दिवंगत हुए देखकर पाश्चर्यचकित हुआ । इधर उधर देखते हुए उसकी नजर दिवाल पर पड़ी और पूर्वोक्त पंक्ति पढ़ते ही उसे समझ में आया कि यह सब घटना किसप्रकार हुई है । बीरसेनका हृदय आचार्य यतिवृषभकी भक्तिसे भर आया । उसको पहलेसे जैनधर्म पर श्रद्धा थी अब और अधिक दृढ़ होगयो । इसप्रकार यतिवृषभ आचार्यने क्षणमात्रमें आराधनापूर्वक समाधिको सिद्ध किया था। यतिवृषभ आचार्यको कथा समाप्त । या समाप्त । किसी कारण से नंद राजाके क्रोधित होनेपर शकटाल नामके मुनिने शस्त्र द्वारा घातकर समाधिमरण रूप अपना स्वार्थ सिद्ध किया था ।।२१४८।।

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