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माकडका
durgर्नामगोत्राणि समानानि विधाय सः । प्राप्तु सिद्धिवधू धीरो विधत्ते योगरोधनम् ॥२१६६॥
समय में दण्डाकार और आठवें समय में मूल शरीर प्रमाण आत्मप्रदेश हो जाते हैं । इसतरह इस समुद्घातका काल आठ समय प्रमाण है । इस समुद्घात में प्रथम दण्डाकार के समय औदारिक काययोग होता है, दूसरे कपाटाकारके समय औदारिक मिश्र योग होता है, तीसरे प्रतराकार चौथे लोकपूरण तथा संकोच करते हुए प्रतराकार ऐसे तीन समयोंमें कार्मण काययोग होता है, संकोचके कपाटाकारमें औदारिक मिश्रयोग, दण्डाकारमें ओदारिक काययोग होता है। इसतरह पुन: मूल शरीर में सर्वात्मप्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं ।
योग केवली जिनेन्द्र समृद्धात द्वारा वेदनीय नाम और गोत्र इन तीन कर्मों को आयुके बराबर करके पुनः सिद्धि वधूमुक्तिको प्राप्त करनेके लिये योग निरोध करते हैं ।। २१८६ ।।
विशेषार्थ - केवली भगवान दिव्य ध्वनि द्वारा उपदेश देना, देश देश में विहार होना इत्यादि बाह्य क्रियारूप योगोंका निरोध तो कई दिन पहले करते हैं, जैसे आदिनाथ भगवान् ने चौदह दिन पहले किया था, अजितनाथ आदि तीर्थंकरोंने एकमास पहले किया था इत्यादि । इस योग निरोधको करनेकी दृष्टिसे ही "विवद्ध' मानचारित्रो, ज्ञानदर्शन भूषितः । शेषकर्म विघाताप, योग रोधं करोति सः । इस कारिका में योग निरोधका उल्लेख किया है । जब केवलो भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहती है तब जिनके कर्मोकी स्थिति विषम हैं वे केवलो समुद्घात करते हैं और जिनके कर्मोकी स्थिति समान है वे समुद्घात नहीं करते । फिर स्थूल- बादर मनोयोग, वचनयोग और काययोगको नष्ट करते हैं और सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग, काययोगमें आते हैं. इसतरह बादर योगोंका निरोध करते हैं । सूक्ष्म योगों में स्थित होकर सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचन योगको भी नष्ट करते हैं और एक मात्र सूक्ष्म काययोग धारणकर सूक्ष्म क्रिया - अप्रतिपाति नामके तीसरे शुक्ल ध्यानको ध्याते हैं । इसतरह ईर्यापथ आस्रवरूप सातावेदनीयका आस्रव, सूक्ष्म शुक्ल लेश्या और सूक्ष्म काययोग इन तीनों को समाप्त करके वे भगवान जिन चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होते हैं । इसीको आगेको कारिकाओं द्वारा कह रहे हैं ।
योग निरोधका क्रम बतलाते हैं