Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 647
________________ अवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार यावदस्ति बलं बोयें स्वयं तावत्प्रवर्तते । क्रियमाणोपकारस्तु तदभावे गणेन सः || २०६७ ।। निरुद्धमवीचारं स्वगणस्थमितीरितम् । अपरः प्रक्रमः सर्वः पूर्वोक्तोऽत्रापि जायते ॥२०८८ || प्रकाशमप्रकाशं च स्वगणस्थमिति द्विधा । जनज्ञातं मतं पूर्व जनाज्ञातं परं पुनः ॥२०८६ ॥ [ ६०७ निरुद्ध नामके अवीचार भक्त प्रतिज्ञाको करने वाला मुनि जबतक बल और वीर्य है तब तक अपनी आवश्यक क्रियायें एवं शारीरिक क्रिया स्वयं करता है और जब बल रहित होता है तब संघके द्वारा उपकृत होकर संघकी सहायता लेकर उक्त क्रियायें करता है ।। २०८७॥ भावार्थ - शक्ति जबतक है तबतक रत्नत्रय पालनमें स्वयं प्रवृत्ति करता है और जब अत्यन्त अशक्त हो जाता है तब संघस्थ मुनि उसकी सेवा करते हैं । इसतरह अपने संघमें रहकर जो समाधिमरण किया जाता है वह निरुद्ध अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहलाता है । इसमें जो क्रम सवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणमें कहा है वही सर्व कम होता है ॥२०८६ ।। विशेषार्थ --- जिस मुनिके पैरोंका सामर्थ्य कम हुआ है अथवा रोगादिसे पीड़ित है, अत: अन्य संघमें जाने में असमर्थ है ऐसे मुनि निरुद्ध अत्रोचार भक्त प्रत्याख्यान मरणको करते हैं अर्थात् अपने संघ में रहकर क्रमशः आहारादिके त्यागरूप विधिको करके समाधिमरण करना निरुद्ध अवचार भक्त त्यागमरण है । अवीचार भक्त त्याग में अनियत विहार स्वगणका त्याग, परगण में प्रवेश आदि विधि नहीं होती । यह मुनि स्वगण में आचार्य के चरणमूलमें दीक्षा से लेकर आजतक जो जो अपराध हुए हैं उनको आलोचना करता है तथा निंदा गर्हा, प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करता है । वह क्षपक मुनि जबतक अपनी सामर्थ्य है तब तक बिना सहायता के प्रवृत्ति करता है, जब सामर्थ्य नहीं रहतो तब अन्य मुनिगणसे सहायता लेकर रत्नत्रय पालन करता है । अपने गए में स्थित होकर निरुद्ध अबोचार भक्त त्याग नामका जो समाधिमरण किया जाता है, उसके दो भेद हैं प्रकाश और अप्रकाश । जो जनता द्वारा जाना

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