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मरगकण्डिका विवेको भक्तपानांगकषायाक्षोपधिश्रितः । पंचधा साधुना कार्यो द्रव्यभाव गतो द्विधा ॥१७॥ सोऽथवा पंचधा शय्यासंस्तरोपधि गोचरः ।
यावस्था कराहारपारामिण संधयः ॥१७६।। - - - - --. -- ----- - - - ---.. -
विशेषार्थ-नि:शंकित आदि आठ गुण युक्त होना अथवा शंकादि दोषका परिहार दर्शन शुद्धि है । योग्य कालमें अध्ययन, अनिह्नव आदि ज्ञान शुद्धि है । अहिंसा आदि व्रतों को उनकी पच्चीस भावना संयुक्त पालना चारित्र की शुद्धि है । कीर्ति, आदि की इच्छाबिना गुरुजन आदिका विनय करना विनय शुद्धि है । छह आवश्यक क्रियाओंका निर्दोष पालन आवश्यक शुद्धि है।
अर्थ-विवेक पांच प्रकारका है-भक्त पान बिवेक, शरीरविवेक, कषाय विवेक, इन्द्रिय विवेक, उपधिविवेक । पुनः यह विवेक द्रव्य विवेक और भाव विवेक ऐसा दो प्रकार है । विबेक साधु द्वारा करने योग्य है ।।१७५।।
भावार्थ-भोजन पान को शास्त्रोक्त विधि से ग्रहण करना अयोग्य भोजन पान को प्राण जाने पर भी ग्रहण नहीं करना भक्त पान विवेक है । यह तो द्रव्यरूप भक्त पान विवेक हुआ । अयोग्य भोजन पानका मनमें विचार नहीं करना, भावरूप भक्त पान विवेक है । शरीर को खोटो चेष्टा जैसे आंखें मटकाना, चुटकी बजाना, ओठ डसना मादि नहीं करना द्रव्यरूप शरीर विवेक है । और ऐसी चेष्टा करनेके भाव नहीं होना भावरूप शरीर विवेक है । क्रोधमान आदि के सूचक वचन नहीं बोलना शरीरमें क्रोधावेश आदि रूप प्रवृत्ति नहीं होने देना द्रव्यरूप कषाय विवेक कहलाता है । चित्त में क्रोध आदि कषाय भाव नहीं होने देना भावरूप कषाय विवेक कहलाता है। साधु के लिये अयोग्य ऐसे इन्द्रिय विषयों में इंद्रियों को प्रवृत्ति को रोकना द्रव्य रूप इन्द्रिय विवेक है और उक्त विषयोंमें मनके भाव ही नहीं होना भावरूप इन्द्रिय विवेक है । श्रामण्य के अयोग्य वस्तुको ग्रहण नहीं करना द्रव्यरूप उपधि विवेक कहलाता है। और ऐसो अयोग्य बस्तुके ग्रहणका चित्त में विचार नहीं होने देना भावरूप उपधि विवेक है।
अर्थ-अथवा शय्यासंस्तर विवेक, उपधि विबेक, वैयावृत्यकर विवेक, आहार पान विवेक और शरीर विवेक ऐसा पांच प्रकार विवेक है ॥१७६।।