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अनुशिष्टि महाधिकार
[ २६७ वेहस्य बीजनिष्पत्तिक्षेत्रांधोजन्मवृद्धयः । अंसाश्च निर्गमोऽशौचं ज्ञेयं व्याधिरनित्यता ॥१०५०।।
विशेषार्थ---आचार्य अमितगतिने इस ग्रंथमें पुरुषों को विशेषतया मुनिजनोंको स्त्रियोंसे विरक्ति कराने हेतु स्त्रियोंमें दोष बताये हैं। पुनश्च स्त्रियोंको पुरुषोंसे बिरक्ति कराने हेतु पुरुषों में दोष बतायें हैं, किन्तु स्त्रियोंके दोष वर्णनमें बहुत विस्तार किया है। सर्वत्र ब्रह्मचर्य के वर्णनमें यहो तरीका देखा जाता है कि प्रथम सविस्तर स्त्रियों के दोष दिखाये जाते हैं और अंत में पुरुषोंके दोष बहुत थोड़े वाक्यों द्वारा बताये जाते हैं। अधिक वर्णन होने से स्त्री संबंधी दोषोंपर तो पाठक या श्रोताजनोंकी दृष्टि जाती है किन्तु पुरुष संबंधी दोषोंपर नहीं जाती। किन्तु यह उनकी बद्धिको ही कमी समझनी चाहिये । आचार्योंने कभी भी सर्वथा नारीकी निदाकी हो ऐसा नहीं है । स्त्री हो चाहे पुरुष खोटे आचरण करे तो दोनों निंद्य हैं।
बहतसे लोग कूतकं किया करते हैं कि आचार्य ग्रंथ रचना करते हैं और वे पुरुष हैं ही, अत: स्त्रियों के दोषोंको बतलाते हैं । यदि स्त्रिया ग्रंथ रचना करे तो ऐसा नहीं होता या नहीं होगा ? किन्तु यह सर्वथा असत्य है । जो तत्त्वज्ञ है वह ऐसा न समझता है न प्रतिपादन हो करता है। शास्त्रोंमें सर्वत्र ब्रह्मचर्यके वर्णन में मुख्यतया स्त्री संबंधी दोषोंका वर्णन करने में तीन हेतु हैं
प्रथम तो मोक्षमार्ग में निर्बाधगतिसे गमन पुरुषही कर सकता है अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति पुरुषके ही होती है, स्त्रियां मोक्ष मार्गपर चलती हैं किन्तु उनका गंतव्य तक निर्वाध गमन नहीं है । जो मार्गपर तो चले किन्तु मंजिल तक नहीं पहुंच पावे उनको मार्ग संबंधी कथन में मुख्यता कंसे हो सकती है ?
दूसरा हेतु-चारों पुरुषार्थोंमें पूर्ण सफलता पुरुषोंको मिलतो है अर्थात् धर्म आदि पुरुषार्थको पूर्ण रूपेण करनेके लिये पुरुष ही सक्षम है । तोसरा हेतू-जो व्यक्ति जिस कार्यको प्रारंभसे अंततक पूर्ण कर सके उसी व्यक्तिको उस कार्य संबंधी उपदेश दिया जाता है । लौकिक कार्य में भी यही बात है।
अंतमें निश्चित रूपसे यही समझना चाहिये कि यदि पुरुषोंको अपने ब्रह्मचर्य को निर्मल रूपसे पालन करना है तो उन्हें स्त्रियोंका संपर्क, उनमें अनुराग अवश्य छोड़ना पड़ेगा ऐसा नहीं होता कि उनसे अनुराग तथा संपर्फ करते रहें और ब्रह्मचर्य