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मरण कण्डिका
लिप्यते वर्तमानोऽपि विषयेषु न संयंति: ! पद्मजासं जले वृद्ध जातु कि लिप्यते जलैः ।। ११६३॥ farface पस्थस्य चितमस्पर्शनं यतेः । सागरं गाहमानस्य सलिलैरिव जायते ।।११६४ ।। न दोषश्यापदे भीमे बंचनागहने यतिः I नश्यति स्त्रीवनेऽलीक पावपेऽशुचिता तृणे ॥। ११६५॥
विषयों के मध्य में रहता हुआ भी यति वैराग्य परक इन कामदोष आदि पांच विषयोंका चिंतन करता है तो उन विषयोंसे लिप्त नहीं होता है, जैसेकि कमलोंका समूह जलमें ही वृद्धिंगत होता है किन्तु जल द्वारा क्या लिप्त होता है ? नहीं होता है।
।। ११६३ ।।
जिस प्रकार सागर में प्रविष्ट हुए पुरुषका जल द्वारा स्पर्श नहीं होना आश्चर्यकारी है उसप्रकार विषय में स्थित यतिके विषयोंसे स्पर्शित नहीं होना उनसे अलिप्त ही रहना आश्चर्यकारी है ।। ११६४ ।।
दोषरूपी श्वापद - जंगलो पशु जिसमें रहते हैं वंचना - ठगाईसे जो गहन हो रहा है, भयावह है, असत्य रूपो वृक्षोंसे जो भरा है, अशुचिरूपी घाससे व्याप्त है, ऐसे स्त्रीरूपी बनमें निवास करते हुए भी मुनि नष्ट नहीं होता ।। ११६५ ।।
विशेषार्थ --- कोई पुरुष भयानक वनमें रहे तो उसे जंगली पशु द्वारा सघन वृक्ष एवं नुकीली घास द्वारा महान् कष्ट होता है । यहांपर मोक्षमार्ग के पथिक मुनिजनों के लिये स्त्री ही एक भयावह बन है, वनमें जंगली पशु हैं इसमें असूया, चपलता आदि दोष रूपी पशु | लता गुल्म आदिसे वनका रास्ता मन होता है, यहां मायाके कारण रास्ता गहन हो रहा है । वनमें अनेक सघन वृक्ष होते हैं, यहां अनेक प्रकार असत्य, ठगाई आदिके वचन ही वृक्ष हैं । वनमें विविध प्रकारको घास होतो है । यहां अशुचि अवयवरूप घास है । ऐसी स्त्रीवन में भो मुनिजन दिग्भ्रमित नहीं होते अर्थात् अपने ब्रह्मव्रत से च्युत नहीं होते, यही इनकी महानता है ।
स्त्री एक नदो स्वरूप है नदोमें कल्लोलें हैं इसमें श्रृंगाररूपी कल्लोलें हैं । नदीमें जल है इसमें यौवनरूपी जल है, नदी में वेग होता है इसमें विलास विभ्रम रूपी
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