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অনুহািতি মাৰিকাৰ पुद्गला ये शुभाः पूर्वमशुभाः सन्ति तेऽधुना । अशुभाः पूर्वमासन्ये सांप्रतं संति ते शुभाः ॥१४८६॥ भुक्तोज्झिताः कृताः सर्वे पूर्व तेऽनन्तशोऽङ्गिना। को मे हों विषादो वा द्रव्ये प्राप्ते शुभाशुभे ।।१४६०॥ रूपे शुभाशुभे न स्तः साधनं सुखदुःखयोः । संडाल्पबशतः सर्व कारणं जायते तयोः ॥१४६१।।
आचार्य महाराज इन्द्रिय विजय किसप्रकार करें इसका उपाय बतलाते हैं---
इन्द्रियों के रूप रस आदि विषयोंमें इसप्रकार सोचना चाहिये कि जो पुद्गल पहले शुभ-मनोहर थे वे अब इससमय अशुभ हैं और जो विषय पहले अशुभ असुहावने थे वे वर्तमान में शुभ रूप है जब इन्द्रिय विषयों में इसतरह परिवर्तन होता रहता है तब शुभ-सुदरमें राग और अशुभ विषयमें द्वेष करना किसप्रकार उचित है अर्थात् उन विषयोमें रागद्वेष अनुचित ही है ।।१४८६।।
संसारी प्राणियोंने अतीत भवों में पहले अनंतबार सभी शुभ अशुभ स्पर्श रसादि विषयोंको भोग-भोगकर छोड़ा हुआ है, अब मुझ ज्ञानी साधुको शुभ पदार्थ हो चाहे अशुभ पदार्थ हो उनको प्राप्ति में क्या तो हर्ष है और क्या विषाद है ? अर्थात शुभाशुभ इन्द्रिय विषयों में अब मेरा कोई हर्ष विषाद नहीं रहा है। इसतरह इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेके इच्छुक हे साधुजनों ! तुम्हें विचार करते रहना चाहिये ॥१४६०॥
कोई शिष्य प्रश्न करता है कि अमुक पुद्गल मुझे सुखप्रद हैं अतः मेरा उसमें अनुराग है एवं अमुक पुद्गल दुःखप्रद है अत: उसमें द्वष है ?
इसका उत्तर आचार्य आगे की कारिकामें देते हैं
भो साधो ! शुभ और अशुभ पुद्गल में सुख और दुःख का साधन नहीं है, शुभ और अशुभमें अपने संकल्प मनकी कल्पनाके वशसे ही सुख दुःखका साधन या कारण माना जाता है । भाव यह है कि कोई भी पदार्थ या रूप रस आदि विषय सर्वथा शुभ अशुभ नहीं है अतः सुख-दुःख का कारण नहीं है, केवल अपनी-अपनी कल्पनासे सुख दुःखके कारण माने जाते हैं ।।१४९११॥