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मरणकण्डिका
छंद-स्वागताधर्मपावपनिकतनशस्त्री जन्मसागरनिपातनकी । दुःख शोकभयवैरसहाया निदितं किमु करोति न माया ॥१४६१।।
॥ इति माया दोषः । लोभतो लभते दोषं पातकं कुरुते परम् । जानोते परमात्मानं नोचमुच्चं न नष्टधीः ।।१४६२॥
मायावी भरत कुम्हारको कथाअंगक नामके देश में बृहद् ग्राममें एक कुम्हार रहता था। एक दिन बहुतसे मिट्टीके बर्तनोंको बैलपर लादकर वह कुम्हार दूसरे ग्राममें बेचने के लिये गया गांवके बाहर बैलको खड़ाकरके वह ठहर गया। ग्रामीण लोग बालक स्त्रियां आदिने उससे घड़े, दिये, सकोरे आदि खरीद लिये और कुम्हारको भोला जानकर किसीने उसको बत्तनोंका मूल्य नहीं दिया । उसको कहा कि कल देखेंगे । बालक उसके साथ हंसी मजाक करने लगे। संध्या हो गगी कुम्हारने दुःखित मनसे रात पूर्ण को । रातमें किसी ने उसके बैल को भी चुरा लिया । प्रातः जब किसीने बत्तंनके रुपये नहीं दिये तब कुम्हार अत्यंत कूपित हो गया। उसने घर-घरमें जाकर पैसे मांगे किन्तु किसीने कछ नहीं दिया। कुम्हारने उस गांव में आग लगाद, । सात वर्ष तक धान्यों से भरे उस ग्राम को वह जलाता रहा और उससे उसने महान् पाप संचय किया। इसप्रकार क्रोषक वशमें हुए कुम्हारका उभय लोक नष्ट होगया।
कथा समाप्त । यह माया धर्मरूप वृक्षको काटने के लिये करोंतके समान है जन्म रूप सागर में गिराने वाली है, दुःख, भय, शोक और बैर स्वरूप अवगुण इसके सहायक हैं, ऐसा कौनसा निंद्य कर्म है जिसको माया नहीं करती है ? अर्थात् माया सर्व हो निंद्य कार्य करती है ।।१४६१।।
मायादोषका कथन समाप्त । लोभ दोषका वर्णन
यह मानव लोभसे दोषको प्राप्त होता है वह अत्यंत प्रशुभ पापको करता है। वह नष्ट बुद्धि वाला व्यक्ति परको तो नीच जानता है और अपनेको उच्च । वह परको कभी उच्च नहीं मानता ।।१४६२।।