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मरणकण्डिका दुराशामिरिदुर्गाणि गरवा दंडशिलोत्करे । भ्रष्टाः सन्तरिचरं कालं गमयंति महाव्यथाः ॥१३६७।। पापकर्ममहारथ्यां विप्रनष्टाः कदाचन । सुखमार्गमपश्यन्तस्तत्रवायान्ति ते पुनः ।।१३६८॥ साधुसार्थ स दूरेण त्यक्त्वोन्मार्गक नश्यति । क्रिया यांति कुशोलानां या सूत्रे प्रतिशिताः ॥१३६६।। कषायाक्षगुरुत्वेन वृत्तं पश्यंस्तृणं यथा । सेवते हस्वको भूत्वा कुशील विषयाः क्रियाः ॥१३७०॥
[इति कुशोलः] केचित्सिद्धिपुरासन्नाः कषायेन्द्रियतस्करैः । मुक्तमाना निवर्तते लुप्तचारित्रसंपवः ॥१३७१।।
वे भष्ट मूनि खोटी आशा रूपी पर्वतके दुर्गम स्थानका उल्लंघन कर दंडरूपी निष्ठर शिला पर गिरते हैं अर्थात् मन, वचन र शरीरको मत प्रीतमें तत्पर हो जाते हैं, इसप्रकार चारित्रसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक महादुःखी हो समय व्यतोत करते हैं ॥१३६७।।
__ पाप रूपी महा अटवो में दिग्मूढ़ हुए वे मुनि कदाचित् भी सुखमार्ग-मुक्तिके मार्गको नहीं देखते हुए पुनः-पुन: वहीं भूमण करते हैं अर्थात् अनंतकाल तक संसाररूपी अरण्यमें भटकते हैं ।।१३६८।।।
वे भष्ट मुनि साधुसार्थका दूरसे हो त्यागकर उन्मार्गसे जाकर नष्ट होते हैं, कुशोल नामके भ्रष्ट मुनियों की क्रिया जो सूत्रमें बतायी है उस क्रियाको करने लग जाते हैं ।।१३६६॥
इन्द्रिय और कषायके तीव्र परिणामके कारण अपने चारित्रको तिनकेके बराबर गिनते हुए अत्यंत हीन वे मुनि कुशील संबंधी क्रियाका आचरण करते हैं ।।१३७०।।
कुशोल नामके भष्ट मुनिका कथन समाप्त । कोई मुनि मुक्ति नगरके निकट पहुचकर भी कषाय और इन्द्रिय रूपो चोरोंके द्वारा लुट गयी है चारित्ररूपो संपदा जिनको ऐसे होकर संयमका सन्मान जिनका समाप्त हुआ है वे मिथ्यात्व में ही लौट आते हैं ।। १३७१॥