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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार कार्याय स्वीकृतां शय्यां विमुच्याचार पंडितः। परिकर्मवती वृत्ते वर्तते देहनिस्पृहः ॥१८३।। दुश्चरं पश्चिमे काले भक्तत्याग मिषेविषः । धीरैः निषेवितं बाद चतुरंगे प्रवर्तते ॥१४॥
इति दितिसुत्रम् । समर्यानुदिशं सर्व गणं संक्लेश वजितः । कियंत काल मात्मानं गणी भावयते तराम् ॥१८॥
___ अर्थ-आचारमें प्रदोण देह से निस्पृह समाधिके इच्छुक साधु पूर्व काल में वैयावत्ति, पठन पाठन आदि के लिये जो वसति आदि स्वीकार की थी, उपकरण शास्त्र आदि ग्रहण किये थे उन सबका त्याग करके चारित्र तपश्चरण आदि में संलग्न होता है । तथा अपने निमित्त से शोधित निर्मित ऐसो वसतकिा आदिको भी छोड़ देता है । यहां पर "शय्या" शब्द से वसतिका उपकरण संस्तर आदि को ग्रहण किया है तथा "परिकर्मवती" शब्द से स्वके उद्देश्य से वसति संस्तर आदि को ग्रहण किया है ।।१८३॥
अर्थ-अन्त समयमें आहार त्याग को करने का इच्छुक यति सम्यक्त्व आदि चार आराधनानों में प्रवृत्ति करता है । कैसा है आहार का त्याग करना ? दुष्कर-कठिन है, तथा वीर पुरुषोंद्वारा जिसको किया जाता है, अर्थात् धीर वीर पुरुष ही जिसका त्याग कर सकते हैं कायर नहीं कर सकते ।।१८४।। इस तरह श्रिति अधिकार समाप्त हुआ। (९)
भावना नामका दसवां अधिकार अर्थ-समाधि के इच्छुक आचार्य अपने चतुर्विध संघको नूतन आचार्य के लिये समर्पित करता है, इस क्रियामें उनमें कोई संक्लेश नहीं होता, इसप्रकार संघ भार से मुक्त हुए ये आचार्य कुछ समय तक अतिशय रूप से अपने आत्मा की भावना करते हैं ।।१८५।।
विशेषार्थ-जब कोई आचार्य समाधिमरण को करना चाहते हैं तो वे सर्व प्रथम मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका ऐसे चार प्रकारके अपने संघको एकत्र बुलाते