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मरणकण्डिका
कांदपों केल्विषी प्राज्ञे, राभियोग्यासुरी सदा ।
सम्मोही पंचमी या संक्लिष्टा भावना ध्रुवम् ॥ १८६॥ हास्य कांदपं कौत्कुच्य पर विस्मय फोविदः । कांदप भावनां दोनो भजते लोलमानसाः ।।१८७।। सर्वज्ञशासनज्ञानधर्माचार्य तपस्विनाम् । frer परायणो मायी फैल्विषों श्रयतेऽधमः ॥। १८८ ।।
हैं आचार्य पदके योग्य शिष्यको अपना आचार्य पद अर्पित करते हैं तथा सम्पूर्ण मुनि आदि संघको शिक्षा उपदेश आदेश देते हैं कि आज से ग्राप सबके ये आचार्य बने हैं ये निर्दोष रत्नत्रयका पालन करते हैं । स्वयं का तथा तुम सब साधुओं का संसार से उद्धार करने में समर्थ हैं इत्यादि रूपसे संघको उपदेश देकर स्वयं निद्वंद्व होकर आत्मध्यान आत्मभावना में लीन हो जाते हैं ।
अर्थ- --प्राज्ञ यतियों को हमेशा निश्चयसे कांदर्पी, कंल्विषी, अभियोग्या, आसुरी और पांचवी सांमोही इन संक्लिष्ट भावनाओं का त्याग करना चाहिये || १८६ | | कांदप भावनाका निर्देश करते हैं
अर्थ - निम्न श्रेणोकी हँसी को यहां हास्य कहा है, रागको उत्कटतासे हास्य मिश्रित अशिष्ट शब्द बोलना कन्दर्प कहलाता है, शरीर की कुचेष्टा के साथ मजाक करना कीत्कुच्य है, मन्त्रादि द्वारा लोगोंको विस्मय कराने में जो चतुरता है उसे पर विस्मय कोविद कहते हैं, इसतरह कन्दर्प आदि अशिष्ट कार्योंको जो चंचल चित्तवाले दोन मुनि करते हैं उन्हें कान्दर्पी भावनावाले समझना चाहिये ।।१८७।।
किल्विष भावना -
अर्थ- सर्वज्ञ भगवान् के शासनकी, आगमज्ञानकी, धर्मकी, आचार्यकी, तपस्वीकी निन्दा करने में परायण मायावी अधम मुनि किल्विष अथवा कॅल्विषी भावना को करते हैं । अथवा जो यति मायाचार के जिन शासन को मानता है अर्थात् ऊपर से दिखावा करता है अन्तरंग में जिन शासनमें श्रुत ज्ञानमें भक्ति नहीं है । चारित्र धर्म में बाहर से आचरण है किन्तु मनमें जरा भी आदर नहीं इसतरह आचार्य आदिके साथ मायाचार पूर्ण व्यवहार करता है केवल दिखावा करता है वह किल्विष भावना वाला समझना चाहिये ।। १८८ ।।