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सल्लेखनादि अधिकार
विविक्त वसति: सास्ति यस्यां रूपरसादिभिः ।
सम्पद्यते न संक्लेशो न ध्यानाध्ययने क्षतिः ॥ २३६ ॥ अन्तर्बहिर्भवां शय्यां त्रिकटों विषमां समाम् । वांच्छत्यविकटां सेव्यां रामाषंढ पशूज्झिताम् ॥ २३७॥ उद्गमोत्पादना वलभा दोषमुक्तामपक्रियां । प्रविविक्त जनागम्यां गृहशय्या विवर्जितां ||२३८ || शून्यवेश्म शिलावेश्म तरुमूलगुहादयः । विविक्ता भाषिताः शय्या स्वाध्यायध्यान वधिकाः ।।२३६ ॥ अयोग्यजन संसर्ग राटीकल कलादयः I विविक्त स्थितेः सन्ति समाधान निषूदिनः ॥ २४० ॥
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अब यहां विविकशय्यासन तप का निरूपण करते हैं— जिस वसतिका में रूप
रस स्पर्श आदि से संक्लेश नहीं होता और ध्यान अध्ययन में हानि होती है वह वसतिका विविक्त कहलाती है ॥२३६॥ वसतिका ग्राम आदिके बाहर में स्थित हो चाहे मध्य में स्थित हो विकट खुले द्वारवाली हो चाहे अविकट ढ़के द्वारवालो हो, समभूमियुक्त हो अथवा विषम भूमियुक्त हो किन्तु वह नियमसे स्त्री, नपुंसक और पशुओं रहित होनी चाहिये ।।२३७|| उद्गम, उत्पादना एवणा दोषोंसे मुक्त हो, संमार्जन आदि क्रिया विहीन हो, जनोंको अगम्य हो, गृहस्थों के संसर्ग से रहित हो ऐसी वसतिका
चाहिये || २३८||
भावार्थ - वसतिका उद्दिष्ट आदि दोषोंसे रहित होनी चाहिये जैसे आहार के उद्गम उत्पादन आदि दोष होते हैं और उन दोषोंसे रहित आहार को साधुजन ग्रहण करते हैं । जो दोष गृहस्थ के आधीन है वह उद्गम दोष है, साधु द्वारा उत्पन्न कराया जाता है वह उत्पादन दोष है । एषणा आदि दोषोंका तथा इन दोषोंका सविस्तार वर्णन भगवती आराधना टीका में है, वहांसे जान लेना चाहिये ।
विविक्त वसतिका कौनसी है यह बताते हैं - शून्यगृह, शिलागृह, वृक्षके कोटर, गुफा आदि जो कि स्वाध्याय और ध्यानकी वृद्धिकारक हैं वह विविक्त वसतिका कहलाती हैं ||२३९ ॥
अयोग्य लोगोंका संसर्ग, राड़, कलकल शब्द, कलह आदि समाधान - शांति को नष्ट करने वाले दोष अविविक्त वसति में रहने से आते हैं ।। २४० ॥