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मरणकण्डिका
प्रारभाराकृत्रिमाराम देवतादि गृहादिषु । जायते वसतः साधोः समाधानमखण्डितम् ॥२४१।। एवमैकाग्रयमापनो ध्यानः शुद्धप्रवृत्तिभिः । समितः पंचभिगुप्तस्त्रिभिरस्ति हितोद्यतः ॥२४२॥ तमिर्जरयते कर्म संवृत्तोऽन्तमुहूर्ततः । षष्टाष्टमादिभिः साधुस्तपसा यन्संवृतः ॥२४३॥ एवं भावयमानः संस्तपसा स्थिरमानसः । अप्रशस्तं परीणामं नाशयश्चेष्टते तरां ॥२४४।। तत्तपोऽभिमतं बाह्य मनो येन न दुष्यति । योगायेन न हीयंते येन श्रद्धा प्रवर्तते ॥२४॥
प्रारभार अकृत्रिम बाग, देवता गृह आदिमें निवास करने वाले साधु के अखंड समाधान-शान्ति होती है !!२४१॥
इसप्रकार विविक्त वसतिमें रहने से शुद्ध प्रवृत्ति द्वारा ध्यानमें एकाग्रता आती है तथा पांच समितियाँ पलती हैं, तीन गुप्तियां सिद्ध होती हैं, इस तरह वह साधु अपने हितमें उमद्यशील हो जाता है ।।२४२॥
- जो साधु अशुभ मन वचन कायसे संवत नहीं है अर्थात् गुप्तिका पालक नहीं है वह षष्ठोपवास-बेला अष्टमोपवास-तेला आदि तप द्वारा जितना कर्म नष्ट करता है उतना कर्म संवृत हुआ अर्थात् मनोगुप्ति आदि युक्त हुआ अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है ॥२४३॥
इसप्रकार गुप्तिको भावना करता हुआ तप द्वारा जिसने मनको स्थिर कर लिया वह साधु अप्रशस्त परिणाम को नष्ट करता हुआ सतत चारित्र में प्रयत्नशील होता है ।।२४४||
वास्तव में बाह्म तप वह है जिससे मन दूषित नहीं होता अर्थात उतना बाह्य तप श्रेष्ठ है, जितना तप करने पर मन में क्लेश नहीं होता। वह तप श्रेष्ठ है जिससे योग- आतापनादि या ध्यान कम नहीं होता, जिससे श्रद्धा बनी रहती है ।।२४५।।