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मरण कण्डिका इच्छावती मनिच्छां वा, दुर्बलां दुर्लभां कुधीः । अज्ञात्वा याचत कामी, सर्वाचार बहिर्भवः ।।६५८॥ परकीयां स्त्रियं दृष्ट्वा कि कांक्षति विमूढधीः । न हि तो लभते जातु पापमर्जयते' परम् ।।६५६॥ अभिलष्य चिरं लाध्या परनारी कथंचन । अनित्तमविश्वस्त सेवने तामेव सः ॥६॥ यत्र तत्र प्रदेशे तामंधकारे कथंचन । अवाप्य त्वरितो भोतो रतिसौख्यं किमश्नुत ।।६६१।। सर्वस्वहरणं रोचं वधं बंधं भयं कलिम् । तज्ज्ञातिपार्थिवादिभ्यो लभत पारदारिकः ।।६६२।। अनर्थकारणं पुसां कलत्रे स्वेपि मैथने । करोति कल्मषं घोरं परकीये न कि पुनः ।।६६३॥
हो-दुर्बल हो, दुर्लभ हो, कैसी भी हो उस बात को बिना जाने ही मांगता है-चाहता है सेवन करता है वह तो सर्व सदाचारसे बहिर्भूत हो जाता है ।।९५८।।
बड़ा अफसोस है कि विमढ़ बुद्धि कामी पुरुष परायी स्त्रीको देखकर उसको क्यों चाहता है ? क्योंकि अन्य पुरुष को स्त्रीको प्राप्त तो कर नहीं सकता है किन्तु व्यर्थ ही पापोंका संचय कर लेता है ।।९५६॥ चिरकाल तक अभिलाषा करके जैसे तैसे कदाचित् परायो स्त्री मिल भी जाय तो उसका सेवन करने में अतृप्ति और अविश्वास होने के कारण वह कामी पहले के समान ही रह जाता है अर्थात् जब परनारी नहीं मिली थी तब अतृप्त था और मिलनेपर कोई देख न लेवे इत्यादि भावरूप आकुलताके कारण अतृप्त हो रहता है ।।९६०।। जहां-तहां किसी स्थानपर उस नारीको किसी प्रकार प्राप्त करके भी वह भयभीत पुरुष शीघ्रतासे रतिसुखको किसतरह पा सकता है ? नहीं पा सकता ॥६६१।। परायी नारीका सेवन करनेवाला पुरुष उस परायी नारीके जाति या कट'बके लोगों द्वारा एवं राजादिके द्वारा सर्वस्वहरण विरोध, वध, बंधन, भय और कलहको प्राप्त होता है अर्थात् जिसकी वह स्त्री है उसके पति, भाई, मामा आदि इस परस्त्रीसेवीको मारना, धन लूटना आदि महान कष्ट देते हैं ।।९६२।। अपनी स्त्रीके साथ मैथन सेवन करनेपर भी यदि पुरुषोंके अनर्थका कारण होता है तो फिर परायी