________________
८६ ]
बताते हैं
मरकण्डिका
उदेति
सहसा
वाक्या सहिष्णुतावात्या प्रेरितः कोपपावकः । चण्डो, भूरिप्रत्युत्तरेन्धनः ॥ २७२ ॥ स दग्ध्वा ज्वलितः क्षिप्रं रत्नत्रितय काननम् । विवधाति महातपं संसारांगार संचयैः ।।२७३ ।। जायमानः कषायाग्निः, शमनोयो मनीषिणा । इच्छा मिथ्या तथाकारप्रणिपातादि वारिभिः ।।२७४ ।।
अब यहाँपर क्रोधरूप अग्नि कब कैसे प्रज्ज्वलित होती है एवं बढ़ती है इसको
खोटे वचन सहन नहीं होनेरूप वायुसे जो प्रेरित हुई है ऐसी क्रोधरूपी प्रचंड अग्नि सहसा उत्पन्न हो जाया करती है और वह अग्नि प्रत्युत्तर रूपी बड़े भारी ईन्धन द्वारा भयंकर रूप धारण करती है || २७२ ॥
विशेषार्थ - - यहाँ पर साधु आचार्य आदिके क्रोध कैसे उत्पन्न होता है किस कारण बढ़ता है इसको बतलाया है, शिष्यकी अयोग्य प्रवृत्ति रोकनेके लिये गुरु उपदेश देते हैं, परन्तु शिष्य जब प्रतिकूल वचन बोलता है तब गुरुको वह सहन नहीं होता, यह सहन नहीं होना ही एक तरह की बायु है, इससे गुरुके मनमें कोप अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, गुरु पुनः शिष्य को समझानेका प्रयत्न करता है, शिष्य उत्तर प्रत्युत्तर करता है उससे कोपाग्नि बढ़ती है । अथवा गुरुके कठोर आज्ञा परक वचन शिष्यको सहन नहीं होनेसे उसके कोप उत्पन्न होता है ।
इस प्रकार कोप रूपी अग्निके प्रगट होनेपर उससे रत्नत्रयरूपी वन शीघ्रतया जलकर भस्मसात् हो जाता है । उससे संसार रूपी अंगारोंका समूह महा भयंकर संताप को करता है || २७३॥
इसप्रकार की कोपाग्निको कैसे शांत करें ! इसका उपाय बताते हैंजब क्रोधाग्नि उत्पन्न होती है तब उसे बुद्धिमानको इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार नमस्कार रूपी श्रेष्ठ जल द्वारा शान्त करना चाहिये || २७४ ||
भावार्थ - शिष्य द्वारा गुरुको क्रोध उत्पन्न हो जाय तो उसका उपाय यहाँ बताया है - हे गुरुदेव ! आपके शिक्षा बचनको मैं अब चाहता हूँ, इसप्रकार शिष्यके नम्र वचन इच्छाकार कहलाता है । हे पूज्य ! मैंने आपको प्रतिकूल वचन सुनाया प्रत्युत्तर दिया अथवा पहले जो अपराध किया है वह दोष मिथ्या हो इसप्रकार कहना