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भक्तप्रत्याख्यानमरण अह आदि अधिकार मंत्र कौतुक तात्पर्य भूति कौषधादिकम् । कुर्धारणो गौरवार्थामाभियोगो मुपैति ताम् ॥१८६॥ निष्कृपो निरनुक्रोशः प्रवृत्त क्रोध विग्रहः । निमित्त सेवको धत्ते भावनामासुरी यतिः ॥१६॥ उन्मार्ग वेशको मार्गदूषको मार्गनाशकः । मोहेन मोहाल्लोकं साम्मोही तां प्रपद्यते ॥११॥
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आभियोग्य भावनाअर्थ मन्त्र, कौतुक, तात्पर्य, भूति कर्म, औषधि आदिको अपने गौरव या ऋद्धि गारव आदिके लिये करता है वह यति आभियोग्य भावना युक्त होता है ॥१८९।।
विशेषार्थ-कुमारी आदिमें भूत का आवेश उत्पन्न करना इत्यादि मन्य है अर्थात् मन्त्र को सामर्थ्य से उक्त कार्य करना । अकाल में जलवृष्टि करके दिखाना इत्यादि कौतुक कहलाता है । बालकों के क्रीड़ा-रमाना आदि के लिये जो कार्य किया जाता है उसे भूतिकर्म कहते हैं । औषधि तो प्रसिद्ध ही है । इन सब कार्यों को मुनिलोग यदि अपनी ख्याति पूजा इष्ट' आहार प्राप्ति इत्यादि हेतु से करते हैं तो वे आभियोग्य नामकी नीच भावना वाले हो जाते हैं और यदि मन्त्रादि को धर्म प्रभावना के लिये, स्व परकी आयुके परिज्ञान के लिये प्रजन में जैन धर्म का सामर्थ्य दिखाने हेतु करते हैं तो दोष नहीं है ।
प्रासुरी भावनाअर्थ--जो मूनि दयारहित है, आक्रोश कलह आदिमें प्रवृत्त है, क्रोध युक्त है, निमित्त सेवक अर्थात् ज्योतिष सामुद्रिक आदि बताकर आहार की प्राप्ति करता है वह आसुरी भावना वाला जानना चाहिये ।।१९०1।
संमोही भावनाअर्थ-खोछे मार्ग का उपदेश देने वाला, रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग में दोष लगाता है, मोक्ष मार्ग का नाश करता है, मोह अर्थात् अज्ञान से जीवोंको मोहित करता है वह मुनि संमोही भावना वाला है ।।१९१॥