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मरणकण्डिका सत्येव स्मृति माहालये, दिनाएँ गति जीविते । भक्तत्यागे मति धत्त, बलवीर्यानिगृहकः ॥१६३।। संन्यास कारणे जाते, पूर्वोक्तान्यतमे सति ।
करोति निश्चितं बुद्धि, भक्तत्यागे तथैव सः ॥१६४।। राज प्रतिदिन दो गव्यति (दो कोस) तक गमन करते हैं। पांवमें कांटा लगे तो निकालते नहीं । दुष्ट पशु आदि को देखकर पीछे नहीं हटते वहीं खड़े ध्यानस्थ हो जाते हैं । इसीप्रकार अन्य भी विशेषता है उसे भगवती आराधना ग्रंथ से जानना। जिनकल्प विधि-इसकी विधि आलन्द के समान है, विशेषता यह है कि ये रागद्वेष पर अतिशयरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले होते हैं । सर्वथा एकाको सिंहवत् विहार करते हैं किसी अन्य मुनिको साथ नहीं रखते हैं, उत्तम संहननधारी होते हैं। इन्हें ऋद्धियां भी रहती हैं। इसकी विशेष विधि भी उक्त ग्रन्थ से ज्ञात कर लेना चाहिये । भक्त प्रत्याख्यान-जिसमें क्रमशः आहार का त्याग करते हुए सल्लेखना मरण किया जाता है इस ग्रन्थ में इसीका वर्णन चल रहा है । इंगिनी-जिस सन्यासमरण में परको सहायता की अपेक्षा नहीं रहती वह इंगिनी मरण विधि है । प्रायोपगमन-जिसमें स्वकी और परकी दोनों प्रकारको सहायता नहीं है, काष्टवत् शरीर को जिसमें छोड़ दिया जाता है वह प्रायोपगमन मरण विधि है।
इसप्रकार आलन्द आदि विधि के विषय में विचार कर सन्यास का इच्छुक मुनि अपने को भक्त त्याग विधिमें समर्थ जान उसमें उत्साहित होता है ।
अर्थ- स्मृति के रहते समाधि करना चाहिये कुछ समय का जीवन भी शेष रहना चाहिये इसप्रकार स्मृति और जीवन काल का माहात्म्य समझकर बलवीर्य को नहीं छिपाने वाले मुनिराज भक्त-प्रत्याख्यान मरण में प्रयत्नशील हो जाते हैं ।।१६।।
भावार्थ-मरणकालमें स्मरण नहीं रहेगा तो आत्म चिंतन, तत्व विचार आदि नहीं हो सकते इसप्रकार स्मृतिका महत्व जानकर तथा मरणका बिलकुल अन्त आ गया तो उस वक्त सल्लेखना विधि का पूर्ण क्रम कैसे सम्भव हो सकता है ? अतः जीवन का कुछ काल शेष रहते हुए क्रमशः आहारादि का त्याग करना चाहिये ऐसा जीवन का महत्व समझकर साधु यथा समय ही समाधि में प्रयत्न करते हैं ।
अर्थ-भक्त प्रतिज्ञामरण के चालीस अधिकार में पहला अर्ह नामके अधिकार का कथन हो चुका है, उसमें कौन सल्लेखना धारण करें इस विषय में नेत्रज्योति का