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भलपत्याखयायमरगा पई आदि अधिकार किमालवं परीहारं, भक्तत्याग मुगिनों । पादोपगमनं कि कि, जिनकल्पं श्रयाम्यहम् ॥१२॥
है । अपने हितके विशेष रूपसे भाव होना "परिणाम" कहलाता है अर्थात यहां पर आत्महित के भाव सल्लेखना के सन्मुख होने के भाव को परिणाम शब्द से निहित किया है । इसोका आगे वर्णन है।
अर्थ-समाधिमरण को निकट भविष्य में जो करना चाहता है वह साधु विचार करता है कि मैं आलन्द विधि का आश्रय लू अथवा परिहार का या भक्त प्रतिज्ञा का, इंगिनी अथवा प्रायोपगमन विधि का आश्रय लू? अथवा क्या मैं जिनकल्प विधिको अपनाऊँ १ ॥१६२।।
विशेषार्थ-आलन्द विधि, परिहार विधि, भक्त त्याग, इंगिनी, प्रायोपगमन, जिनकल्प इसप्रकार यहां पर छह प्रकार के सन्यास विधि का उल्लेख है। इनमें से भक्त त्याग, भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये तीन प्रसिद्ध हैं और साक्षात् सल्लेखना स्वरूप हैं । आलन्द विधि, परिहार विधि और जिनकल्प विधि ये तीनों अतिशय रूपसे उच्चकोटिका साधु आचार है जो कि मुनिगणको सन्यासके निकट ले जाता है अथवा अलिश्रेष्ठ सल्लेखना के अभ्यास का साधकतम हेतु है ।
__ आलन्द विधिका विस्तृत वर्णन भगवतो आराधना-मूलाराधना को संस्कृत टोका में तथा उसके हिन्दी अनुवाद में भली प्रकार से किया गया है । यहां पर अति संक्षेप से बताते हैं---जो मुनि मूल गुण और उत्तर गुणों के पालन में सावधान हैं, महान बलवीर्य सम्पन्न परीषह और उपसर्ग के विजेता हैं, आगम का स्वरूप भली भांति जानते हैं। ऐसे महान योगी आचार्य को आज्ञा से आलन्द विधि का आचरण करते हैं | घोर परीषह उपसर्ग को सर्वथा महते हैं, रात्रि में निदा नहीं लेते भयंकर रोग आने पर भी उसका प्रतीकार (औषधि) नहीं करते, कोई कुछ पूछे तो उत्तर नहीं देते, केवल इतना उत्तर कदाचित् देते हैं कि मैं मुनि हूं। कोई उनसे बोले तो उस स्थानको छोड़ देते हैं । वाचना आदि स्वाध्याय नहीं करके ध्यान में हो लगे रहते हैं। किचित् भी अशुभ परिणाम होने पर तत्काल उसे दूर करते हैं इत्यादि । परिहार विधि-इस विधि का भी वर्णन भगवती आराधना में विस्तार पूर्वक किया है । इसमें भी आलन्द विधि के समान आचरण है विशेषता यह है कि इस विधि के पालक मुनि