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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार
अवशं क्रियते वश्यं येनदास इस व्रतम् । श्रामण्यं निश्चलं तस्य, सर्वदाप्यवतिष्ठते ।।१४६।।
इति समाधिः। दृष्टि शुद्धि स्पिरी कारौ, भावना शास्त्र कौशलम् । क्षेत्रस्य मार्गणा साधो, गुणा नित्यविहारिणः ॥१५०॥ विशुद्ध दर्शनं साधो, जायते पश्यतोऽहंताम् ।
जन्मनिष्क्रमणज्ञान तीर्य चिह्न निषिद्धिकाः ॥१५॥ करके अर्थात् हाय ! बड़ा कष्ट है कि मैं अतत्व श्रद्धा, विषय वासना आदि करता हूं तो मुझे ही उसका महान कर्म बन्ध होगा। मनको आत्मस्थ करने के लिये इसप्रकार विचार करे कि यदि मैं मुमुक्षु होकर भी असंयम मिथ्यात्व आदि रूप विचार करूंगा, आचरण करूंगा तो बड़े शरम की बात है, ये अशुभ विचार अनन्त संसार को बढ़ाने वाले हैं, इत्यादि विचार से साधुजन अपने मन की स्वर प्रवृत्ति को रोके ॥१४॥
___ अर्थ-जो साधु अवश ऐसे अपने मनको वश में कर लेता है जैसे कि अवश हुए स्वैर दास को किसो उपाय से वश किया जाता है । इस प्रकार अपने मनको वश करने वाले मुनिके श्रामण्य निश्चल हुआ सदा अवस्थित ठहर जाता है, जैसे वशमें किया हुआ दास हमेशा के लिये टिक जाता है, नौकरी सेवा छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता ।।१४९॥
इसप्रकार समाधि अर्थात् मनः समाधि मनको वश करना, श्रामण्य में स्थिर करना, इसका कथन करने वाला यह अधिकार पूर्ण हुआ।
६. अनियत बिहारअर्थ-अनियत बिहार करने से अर्थात एक जगह अधिक नहीं रहना विहार करते रहने से साधु के सम्यक्त्व में शुद्धि होती है, रत्नत्रय में स्थिरता पाती है, भावना अर्थात् परोषह सहन आदिका अभ्यास होता है । शास्त्र ज्ञान वृद्धिंगत होकर गूढार्थ करने में निपुणता प्राप्त होती है, कौनसा क्षेत्र साधु के निर्दोष आचरण में उपयुक्त है, इत्यादि रूप देश की खोज होती है । इसप्रकार बिहार से ये गुण प्राप्त होते हैं ।। १५०।।
___ इसीका आगे खुलासा करते हैं___ अर्थ-विहार करने वाले साधुजनों के तीर्थंकर भगवान के जन्मकल्याण के देन, दीक्षा कल्याणके स्थान, केवलज्ञानोत्पत्ति स्थान, तीर्थ चिह्न अर्थात् समवशरण और