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तितिक्षा की कसौटियां
धृति होती है तो सब कुछ सहा जा सकता है। अगर वह नहीं होती है तो साठ और सत्तर वर्ष का आदमी भी विचलित हो जाता है। अविचलन के लिए धृति का विकास, आंतरिक शक्ति का विकास अपेक्षित है।
सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास को सहना भी आसान हो सकता है पर गाली को सहन करना बहुत कठिन है। बहुत सारे व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो तपस्या कर लेते हैं, भूख सह लेते हैं, मासखमण तक की तपस्या कर लेते हैं पर मन के प्रतिकूल थोड़ी सी भी बात होती है तो उनका पारा गर्म हो जाता है। यह एक परीषह है। वध-मारपीट भी एक परीषह है।
एक बार आचार्यवर मेवाड़ में बेरों के मठ में ठहरे। ऐसी स्थिति बनी-मठ में रहने वाला एक व्यक्ति लोहे का गर्म चिमटा लेकर आचार्यश्री के पास पहुंच गया। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। जैसे लाल लोहे का चिमटा था वैसा ही लाल उसका चेहरा बना हुआ था। आचार्यश्री ने उस व्यक्ति से पूछा-क्या करोगे? उसकी हिम्मत नहीं हुई? चिमटा उसके हाथ में ही रह गया। हजारों लोग बैठे यह दृश्य देख रहे थे। वे किंकर्तव्यविमूढ और स्तब्ध बने हुए थे। कुछ क्षणों के बाद वह व्यक्ति लौट गया। ऐसी स्थिति में अगर धृति न हो तो आदमी विचलित हो जाए। बिना धृति और मनोबल के सहा नहीं जा सकता। आदर्श स्पष्ट हो
सहिष्णुता के लिए धृति और मनोबल का विकास अपेक्षित है, आन्तरिक आनन्द को जगाना आवश्यक है। भीतर में आनन्द का स्रोत नहीं बह रहा है तो व्यक्ति को बाहर की परिस्थितियां और कष्ट तत्काल विचलित कर देंगे। धृति, मनोबल और आनन्द का जागरण तभी संभव है, जब व्यक्ति के सामने एक स्पष्ट आदर्श हो। आदर्श के बिना इसका विकास संभव नहीं है। आदर्श के सहारे ही इसका विकास किया जा सकता है।
अर्हत् एक आदर्श है। अर्हत् कोई व्यक्ति नहीं है। अर्हत् गुणों का एक समुच्चय है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति-यह चतुष्टयी जिस पुरुष में जागृत हो जाती है, उसका नाम है अर्हत्। अर्हत् आदर्श है, अर्हत् तक पहुंचना है, अर्हत् बनना है। यह दर्शन जितना साफ रहेगा उतनी ही व्यक्ति की क्षमता जागेगी, आनन्द जागेगा, शक्ति और मनोबल बढ़ेगा। यह आदर्श अगर स्पष्ट नहीं है तो मार्गातरण होगा, दूसरा मार्ग खोजा जाएगा, छिपाव होगा। तितिक्षा के विकास के लिए और परीषहों को झेलने के लिए स्पष्ट आदर्श की जरूरत है। प्रज्ञा परीषह : अज्ञान परीषह
बाईस परीषह बतलाए गए हैं। उनमें कुछ शारीरिक हैं, कुछ मानसिक और कुछ भावनात्मक। उनमें सबसे ज्यादा कठिन है अज्ञान और प्रज्ञा का परीषह। प्रज्ञा का परीषह सबसे ज्यादा भयंकर है, नास्तिकता पैदा करने वाला है। एक साधक सोचता है-कितने वर्ष साधुपन पाला, कितनी तपस्या की, कितना
जप किया, कितना ध्यान किया और मिला क्या?. कहां मोक्ष, कहां स्वर्ग और कहां Jain Education International For Private & Personal Use Only
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