Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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महावीर का जीवन सदेश
सासारिक शिष्टाचार मे फसे हुए हम उस मूर्ति की श्रोर देखते ही सोचने लगते है कि यह मूर्ति नग्न है । हम अपने हृदय और समाज मे तरहतरह की गन्दी वस्तुओ का संग्रह करते रहते है, परन्तु उनके लिए न तो हमे घृणा होती है, न लज्जा । इसके विपरीत वाहर केवल नग्नता देख कर चौक उठते है और समझते है कि नग्नता मे अश्लीलता है। इसमे सदाचार के प्रति द्रोह है । यह सब लज्जास्पद है । यहाँ तक कि अपनी नग्नता से बचने के लिए लोगो ने आत्म-हत्या तक की है। लेकिन क्या नग्नता वास्तव में हेय है अत्यन्त अशोभन है ? यदि ऐसा होता तो प्रकृति को भी इसके लिए लज्जा आनी । फूल नगे रहते है, पशु-पक्षी भी नगे ही रहते है, प्रकृति के साथ जिनकी एकता वनी हुई है, वे शिशु भी नगे ही फिरते है । उनको अपनी नग्नता मै लज्जा नही लगती और उनकी ऐसी स्वभाविकता के कारण ही हमे भी उनमे लज्जा जैसी कोई चीज नही दिखाई देती । लज्जा की बात जाने दीजिए। इस मूर्ति मे कुछ भी प्रश्लील, वीभत्स, जुगुप्सित, प्रशोभन श्रीर अनुचित लगा है - ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं । इसका कारण क्या है ? यही कि नग्नता एक प्राकृतिक स्थिति है । मनुष्या ने विकारो का ध्यान करते-करते अपने मन को इतना अधिक विकृत कर लिया है कि स्वभाव से ही सुन्दर नग्नता उससे सहन नही होती। दोप नग्नता का नही, अपने कृत्रिम जीवन का है। बीमार मनुष्य के आगे पके फल, पौष्टिक मेवे और सात्विक आहार भी स्वतंत्रतापूर्वक नही रखा जा सकता । यह दोष खाद्य पदार्थ का नही, बीमार की बीमारी का है । यदि हम नग्नता को छिपाते है तो नग्नता के दोप के कारण नही बल्कि मनुष्य के मानसिक रोग के कारण । नग्नता छिपाने मे नग्नता की लज्जा नही है, वरन् उसके मूल में विकारी मनुष्य के प्रति दयाभाव है, उसके प्रति सरक्षण वृत्ति है । ऐसा करने मे जहाँ ऐसी श्रेष्ठ (आर्य) भावना नही होती, वहाँ कोरा दम्भ है ।
परन्तु जैसे बालक के सामने नराधम भी शान्त और पवित्र हो जाना है— मे ही पुण्यात्मात्री तथा वीतरागो के भी सम्मुख मनुष्य, धान्न और गभीर हो जाता है । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ भी मनुष्य दब कर शुद्ध हो जाता है । यदि मूर्तिकार चाहते तो माधवी लता की एक शाखा वी लिंग के ऊपर से कमर तक ले जाते और नग्नता का ढकना श्रमभव न होता लेकिन तव तो बाहुबलि ही स्वय अपने जीवन दर्शन के प्रति विद्रोह करते प्रतीत होते । जब बालक सामने ग्राकर नगे खडे हो जाते हैं, तब वे कात्यायनी