Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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हिन्दू की दृष्टि मे जैन धर्म प्रवाहो में वहनी प्रायो है। इन दोनों के बीच गुणो और दोपो का आदानप्रदान हमेशा चलता आया है । ग्राह्मण यानि वैदिक धारा मे जो हिंसा मूला यज-मम्या चल रही थी वह श्रमण मम्कृति के पोर सन्तो के प्रभाव से नाम प हो गयी।
यज-मस्था का प्रारम्भ गायद हिंसा मे नही हुया होगा. लेकिन उमया विस्तार पगु हिमा के म्प में ही हो गया।
जात-पान भेद शायद गुरु में वैदिक मम्मृति में नहीं थे। ग्राज के स्प मे तो वे नही ही थे । लेकिन वण-व्यवन्या और जाति-व्यवस्था ही वैदिक मस्कृति का प्रधान रूप बन गया। यह वर्ण और जाति-व्यवस्था श्रमण मम्कृनि के अनुकूल नहीं थी, तो भी उमका प्रारमण श्रमण-सस्कृति पर काफी मात्रा मे हुया है । जब वैदिक-परम्पग के हम लोग उम जाति-व्यवस्था को धर्मविगेधी मम्झकर तोडने को तैयार हुये है, तव श्रमण-मम्मृति के लोग उसे अपने समाज का प्राण ममतकर कभी-कभी मजबूत करने की कोशिश करते है।
जाति-भेद तो सकुचितता और ऊँच-नीच भाव पर ही प्राधारित है। वर्ण व्यवम्या मे न्यक्ति का जीवन-विकाम एकागी ढग मे होता है । ब्राह्मण, क्षनिय, वैश्य, शूद्र चार वण मानो किमी एक यन्त्र के पुर्जे है । यन्त्र में मम्पूर्णता मले हो, पुर्जी का जीवन एकागी ही होता है । अथवा यो कह कि जीवन उनका स्वतन्त्र है ही नहीं। आज की मानवता का तकाजा है कि व्यक्ति के जीवन में एकागिता का प्रवेश समाज के लिये पतरनाक है।
श्रमण-मस्कृति ने वर्ण-व्यवस्था को न स्वीकार किया और न उसका विगेध ही । उमकी उपेक्षा ही की । वैदिक-परम्परा के विकाम में जब प्रियाकाण्ट चेतनहीन हो गया, तब मन्तो का प्रादुर्भाव हुआ । मन्तं ने भी वर्ण और जाति को अप्रतिष्ठिन किया, और इतना तो म्पप्ट कहा कि मानवी विकास के लिये वर्ण और जाति पोपक नही, वाधक है । श्रमण-सस्कृति का ही यह फल था। इस प्रकार यह साफ है कि श्रमण-सम्कृति और ब्राह्मणमस्कृति दोनो धाराए समानान्तर वहती पायी है । द नो के बीच प्रादान-प्रदान चलता रहा है अच्छाइयो का भी और दुराइयो का भी।
अब हम इन दोनों के बीच समान भाव से बढी और एक सस्था का विचार करें। वह है मन्दिरो की सस्था । मूल वैदिक-सस्कृति मे शायद