Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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जैन धर्म और अहिंसा
143 जैन समाज तथा जैन साधुनो और आन यों को यह सोचना चाहिये कि इस सारी हिंसा का सामना कैसे किया जाय और इस दृष्टि से समाजजीवन का परिवर्तन करने के लिये कौनसे कदम उठाये जाने चाहिये ।
जब हमारा समाज धर्मप्राण था उस समय हमारे धर्माचार्य तत्कालीन विज्ञान की मदद से साहस पूर्वक जीवन परिवर्तन करने मे हिचकिचाते नही थे और समाज की पुरानी रूढियो का विरोध करने मे भी डरते नही थे।
शरीर-शुद्धि के लिए पचगव्य मे गोमूत्र का भी प्राशन करने की प्रथा के पीछे वैज्ञानिक साहस स्पष्ट दिखाई देता है। पानी मे सूक्ष्म कीटाणु होते है इसलिये पानी को गरम करने और उसे तुरन्त ठण्डा करने की जो प्रथा जैनो ने चलाई, उसमे आज के डॉक्टरी आग्रहो से कम हिम्मत नही थी। जैन साधुनो का केशलुञ्चन तथा मुख पर बाँधी जाने वाली 'मुहपत्ती' भी मामाजिक शिष्टाचार की परवाह न करके एक प्रकार के विज्ञान से चिपके रहने की हिम्मत का ही प्रतीक है । बहुबीज वनस्पति न खाना, रात्रि-भोजन न करना इत्यादि सुधारो का प्रचार जिन आचार्यों और साधुनो ने किया, वे आज के जमाने मे विज्ञान का अनुसरण करके यदि चिन्तन करे और नये आचार का प्रचार करे, तो कोई यह नही कह सकेगा कि आज के जैन आचार्य धर्मपरायण न रहकर रूढि-परायण हो गये है और आज के जैन साधु अन्धपरम्परामो का निष्प्राण जीवन जीते है।
जो चीज बुरी मानी जाती है वह कितनी ही सुखकर, प्रिय अथवा प्रतिष्ठित क्यो न हो, तो भी उसका त्याग करने के लिये तैयार होना और अद्यतन विज्ञान तथा धर्मज्ञान आज जो नई दृष्टि प्रदान करे उसका अनुसरण करने के लिये तैयार होना जीवन्त और प्राणवान रहने का लक्षण है। जो व्यक्ति जीवन पर विजय प्राप्त करता है वह जिनेश्वर है । अब ऐसे अनेक जिनेश्वर उत्पन्न होने चाहिये। उनके आने की हम तैयारी करे और उनके स्वागत के लिये लोक-मानस तयार करे।