Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 180
________________ 164 महावीर का जीवन संदेश लेकिन दूसरे का भी मुझे सोचना चाहिये । उसके विना मेरी धार्मिक साधना पूरी नही हो सकती। मैं अगर अपने धर्म का पालन नही करूंगा तो औरो के धर्म की सोचने की योग्यता और शक्ति मुझ मे नही आएगी । इस सत्य को तो कोई इन्कार नही कर सकता । साथ-साथ यह भी कबूल करना होगा कि अगर मै औरो की बात सोचने से इन्कार करू, ओरो के हितग्रहित के प्रति उदासीन बनू तो मै अपने व्यक्तिगत धर्म का पालन करने की शक्ति भी खो बैठूंगा । व्यक्ति अकेला धर्मपालन की साधना कर सकता है । किन्तु ले की धर्म-साधना चल नही सकती । सारे विश्व मे परस्परावलवन है । मै अकेला मास न खाऊँ इस से प्राणी नही बचेंगे। अगर मासाहार का विरोध करना है तो भे भी मास न खाऊँ और औरो को भी मास छोडने की प्रेरणा । ऐसा करने से ही मास-त्याग के आदर्श की व्यवहारिता और मर्यादा मेरे ध्यान मे आयेगी । अगर मै शस्त्र धारण करने से इन्कार करू, किसी से नही लडने का निश्चय कर बैठ जाऊँ तो मेरी और सब की रक्षा का वोझ मैं औरो के सिर पर डाल दूँगा । इससे झगडा, युद्ध और हिंसा वन्द होने के नही । गाँधीजी अगर अपनी ही वात सोचकर बैठ जाते तो सत्याग्रह का आविष्कार न होता । जो लोग स्वय अपरिगही रहते है उनके कारण रो को अपना परिग्रह aढाना पडता है । गृहस्थाश्रम के प्रादर्श मे यह बात स्पष्ट की है कि गृहस्थाश्रम पर आधार रखने वाले माधु, सन्यासी, विरक्त, वानप्रस्थ, वीमार, वृद्ध, बालक, प्रतिथि-अभ्यागत इन सब के लिये भी गृहस्थ को कमाना हे । ये सव उसके श्राश्रित है । गृहस्थाश्रम का यह प्रादर्श मजूर रखते हुए भी कहना पडता है कि आश्रितो का जीवन धर्म- जीवन नही है । अगर अनेकों का बोझ उठाने का भार गृहस्थाश्रम पर लाद दिया तो हमने ममाजसत्तावाद का, सोशियालिजम का, वीज वो ही दिया । सन्यासी क्यों न हो उसे अगर अन्न खाना है तो उसका धर्म है कि कम-से-कम अपने पेट के जितनी खेती वह जरूर करे । स्वावलबन जरूर सबमे श्रेष्ठ धर्म है । परावलवन शुद्ध धर्म ही हैं । आवश्यक परस्परावलवन है सच्चा सामुदायिक धर्म । अनेक देश अनेक सम्प्रदाय, अनेक जाति और अनेक पेशो मे विभक्त मानव-जीवन एक और अविभाज्य है । सब का मिल करके धर्म भी नही है अपने-अपने व्यक्तिगत धर्म याने कर्तव्य का ही मव का माचने की और सब की सेवा करने की सव के प्रति उदासीन होने मे, सेवा-धर्म का इन्कार होती है । धार्मिक व्यक्तिवाद अन्धा है, व्यर्थ है । मार्च 1951 यथाशक्ति पालन करने मे योग्यता प्राप्त होती है । करने में, धर्म-हानि हो

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