Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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महावीर का जीवन सदेश
क्या कोई कह सकता है कि ज्ञान तो ग्रमुक मनुष्य को ही मिल सकता है, दूसरे लोगो को अज्ञानी ही रहना चाहिये, अमुक लोग अहिंसा धर्म का स्वीकार कर कैवल्य प्राप्त करे वह काफी है, वाकी की दुनिया हिंसा का स्वीकार कर एक-दूसरे का नाश करे तो हमे हर्ज नही ?
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जैन धर्म सिद्धान्त से, स्वभाव से और मूल प्रेरणा के अनुसार सार्वभौम मानव-धर्म बनने के लिये पैदा हुआ है । उस धर्म के श्राद्य प्रचारक मे धर्मतेज था तब तक वह धर्म फैला। परन्तु साधु तपस्या बढाते-बढाते स्वार्थी मोक्षार्थी हुये और श्रावक तो बेचारे अनुयायी । श्रमुक श्राचारधर्म का पालन करे, शाकाहार का आग्रह रखे, यथाशक्ति दानधर्म करके छुट्टी पायें और धर्म कार्य के तौर पर साधुओ की पूजा करें, साधुओ को श्राश्रय दे और अपनी तपश्चर्या बढाने मे प्रोत्साहन दे । जिसकी तपस्या ज्यादा वह ज्यादा वडा साधु । उसी के वचन सुनने के लिये लोग दोडते है । और साधु भी जानते है कि श्रावक तो आखिर श्रावक ही रहेगे । वे अमुक सदाचार का पालन करे वह काफी है, फिर तो खूब कमाये और सुखी रहे ।
जैन धर्म का रहस्य और स्वरूप समझने वाले साधुओ के कुछ ग्रन्थ मैंने देखे हैं । वे कहते है- जैन धर्म मे जात-पांत को स्थान नही है । बात सही है, परन्तु वे उदाहरण देते है साधुओ के । पिछडी जमात के लोग भी जैन साधु बन जाये तो लोग उन्हे समान भाव से पूजते है । साधु ज्ञान और तपस्या आगे बढते है तो उन्हे गुरु बनने मे कोई कठिनाई नही है ।
परन्तु, श्रावको ने जैन धर्म की यह उदारता अपने साधु लोग को ही भुवारक बख्शी । अव ये साधु न विवाह करे, न कमाये, तपस्या बढ़ाते जाये, उपदेश करते जाये । उन्हे जात-पाँत से सम्बन्ध आवे तो कैसे ? साधुओ मे जाति का उच्च-नीच भेद नही है यह ठीक है, पर साधु की जाति श्रावको से ऊँची है । और, इसलिये साधुओ के अमुक अधिकार लोगो को मान्य रखना ही चाहिये, इस प्रकार का आग्रह और अभिमान साधुओ मे कम नही है ।
जहाँ सभी समाज शिथिल है और मानवो की दुर्बलता तथा विकृति समान रूप से फैली है वहाँ कौन किसको दोप दे ? जहाँ-जहाँ ज्ञान, पवित्रता, कारुण्य, सेवाभाव और उदारता हो वहाँ उसकी हम कदर करे । मेरा उद्देश्य किसी भी समाज या वर्ग के गुण-दोप की चर्चा करने का है ही नही। मुझे इतना ही कहना है कि जैन धर्म, जो मूल मे विश्व कल्याण के लिये प्रवृत्त हुआ