Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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धर्म संस्करण १
71
करना पड़ता है। इसीलिये हमारा धर्म अनेक पहलुप्रो वाले तेजस्वी रत्न के समान दिव्य से दिव्यतर बनता रहा है।
जब हम विदेशी सत्ता के अधीन रहते है तव धर्म को अत्यन्त कृत्रिम और हीन वातावरण सहन करना पड़ता है । जब किसी देश पर विदेशी लोगो को आक्रमण हो रहा हो उस समय धर्म-संरकरण में स्वाभाविक विकास नही रहता । हम कोई परिवर्तन करने जाय और हमारे विरोधी हमारी कमजोरी देखकर मर्मस्थान पर प्राघात करें तो यह भय हमेशा बना रहता है । विदेशी सत्ता स्वभावत समभाव से शून्य होती है। वह रूढियो को तो टिके रहने देती है, लेकिन हमारी शक्ति को वरदाश्त नही कर सकती । इमीलिये विदेशी सत्ता के कानून कहते है 'तुम्हारे जो रीति-रिवाज परम्परा से चले पाये है उन्ही को सरक्षण मिलेगा । तुम नये रिवाज चाल नही कर सकते । तुम जहाँ हो वहां से हट नही सकते । पुराने कलेवर को हमारा अभय-दान है। लेकिन यदि हम तुम्हारे प्राण को, तुम्हारी शक्ति को राज्य की मान्यता दे, तब तो हमारा प्रभुत्व तुम्हारे देश में टिक ही नहीं सकता।' ऐसी समभावशून्य तटस्थता मे सडी-भुमी रूढियाँ भी कानून की कृत्रिम सहायता से टिक सकती है।
ब्रिटिश राज्य के कारण हमारे यहाँ 'हिन्दू ला' के अमल मे यह स्थिति कदम-कदम पर वाधक सिद्ध हुई है । न्य यमूर्ति तेनग अकसर इस स्थिति के विरुद्ध अपनी नाराजगी और खीज प्रकट किया करते थे। प्रत्येक धर्म और प्रत्येक समाज को अपनी व्यवस्था में चाहे जैमा परिवर्तन करने का अधिकार होना ही चाहिये । परन्तु ऐसा करने के लिए जो स्वतत्रता, एकता और योजना-शक्ति आवश्यक है, वह उस उस समाज में होनी चाहिए । वडी से बडी कीमत चुका कर भी हमे इन गुणो का विकास करना चाहिये । हिन्दू धर्म को यदि टिकाये रखना हो और जगत में इसका स्वाभाविक स्थान फिर से दिलाना हो, हिन्दू धर्म को यदि समाज के लिए कल्याणकारी वनाना हो, तो हमे साहस के साथ उसका मैल धो डालना चाहिए। ऐसे कितने ही रिवाज और और अन्ध-विश्वास हमारे समाज मे घुम गये है, जो धर्म के सनातन सिद्धान्तो के विरोधी है और जिनकी वजह से समाज की सारी प्रगति रुक जाती है । इन सव को तुरन्त जलाकर भस्म कर देना चाहिये।
___ अस्पृश्यता एक ऐसी ही दुराई है। जाति के विपय में उत्पन्न होने घाला अहकार और प्रेम की सकुचितता, व्यापक प्रात्मीयता का अभाव-यह