Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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महावीर का जीवन संदेश
धर्म - जिज्ञासा और धर्म - चिन्तन मनुष्य का स्वभाव ही है । इस कारण से प्रत्येक, दु" न और प्रत्येक प्रदेश मे उन्नति की कक्षा के अनुसार मनुष्य के हृदय में धर्म का आविर्भाव होता ही रहा है । यह हृदय धर्म कितना ही कलुषित, कितना ही मलिन क्यो न हो जाय, फिर भी मूल वस्तु तो शुद्ध हीं रहती है । अशुद्ध सोना पीतल नही है, और पीतल चाहे जितना शुद्ध, चमकीला और सुडौल हो, फिर भी वह सोना नही है । इसी प्रकार केवल बुद्धि के जोर पर खड़ा किया गया, लोगो के हृदय में रहने वाले राग-द्व ेप से लाभ उठाकर आरम्भ किया गया और थोडे या बहुत से सामर्थ्यवान लोगो के स्वार्थ का पोषण करने वाला धर्म सच्चा धर्म नही है । प्रसस्कारी हृदय की क्षुद्र वासना और दभ से उत्पन्न होने वाली विकृति को ढकने वाला शिष्टाचार अथवा चतुराई से भरे तर्क द्वारा किया हुआ उसका समर्थन भी धर्म नहीं है । प्रज्ञान (अर्थात् अल्पज्ञान), भोलापन और अधश्रद्धा - इन तीन दोपो से कलुपित बना हुआ धर्म अधर्म की कक्षा को पहुँच जाय, यह एक बात है, और मूल में ही जो धर्म नही हैं वह केवल चालाकी से धर्म का रूप धारण कर ले, यह दूसरी बात है । मनुष्य समाज अव इतना प्रौढ और अनुभवी हो गया है कि मानव इतिहास मे धर्म के ऊपर कहे गए दोनो प्रकार व्यापक रूप मे पाये जाते है । परन्तु इन दोनो प्रकारो का पृथक्करण करके इनके सच्चे स्वरूप को पहचानने का कष्ट अभी तक मनुष्य ने नही किया है ।
हृदय-धर्म जब बुद्धि-प्रधान लोगो मे अपना कार्य आरम्भ करता है, शिष्ट लोगो द्वारा मान्य किया हुआ धर्मं बनता है और इसलिये जब वह सस्थाबद्ध हो जाता है तब उसके शास्त्र रच जाते है, शास्त्रो का अर्थ लगाने वाली मीमासा - पद्धति उत्पन्न होती है और ग्रन्तिम निर्णय देने वाले शास्त्रज्ञो का एक वर्ग खड़ा होता है, अथवा पोप या शकराचार्य के समान अधिकाररूढ व्यक्तियो को मान्यता प्राप्त होती है ।
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धर्म को शास्त्रवद्ध और सस्थावद्ध बनाने का कार्य बुद्धि प्रधान और व्यवहारकुशल लोगो के हाथो होता है, इसलिये धर्म की स्वाभाविक भविष्योन्मुख दृष्टि क्षीण हो जाती है और उस पर भूतकाल की ही परते चढ जाती है । भूतकाल मे सदा श्रग्नि की अपेक्षा भस्म ही अधिक होती है, इसलिये धर्मतेज मद पड जाता है । यही कारण है कि प्रत्येक धर्म का समयसमय पर सस्करण या परिष्करण करना जरूरी हो जाता है ।