Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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सर्व-त्याग या सर्व स्वीकार
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धर्म का आविष्कार किमने किया ? मनुष्य हृदय ने ' मनुष्य की बुद्धि मामान्यत जितना दूर देख सकती हैं इससे भी दूर जो देख मकतेने ऐगे श्रान्तदर्शी ऋषि-मुनियों ने और नवी पंगम्बरो ने या प्रत्यक्ष जन-गण-मनअधिनायक स्वयं परमात्मा ने ?
धर्म शब्द के श्रयं श्रनेक है । नेकिन इनमें भी दो श्रयं प्रधान है । धर्म का एक अर्थ होता है स्वभाव या प्रकृति । जनाना प्रग्नि का धर्म है । गीला करना पानी का धर्म है। मौका मिलते ही बहते रहना हवा का धर्म है ।
मी अर्थ मे हम कहते हैं कि तनिक भी दुग्र होते रोना वरून. का धम है । तेज भूख लगने पर जो मिले सो गाना यह प्राणीमात्र का और मनुष्य का भी धर्म है । यहाँ धर्म का केवन्न अर्थ है प्रकृति या स्वभाव ।
धर्म का जो दूसरा अर्थ है वह एक ही वाक्य में स्पष्ट होगा - नाहे जितनी तीव्र भूख लगे, प्राण कठ मे प्रा जाय तो मी नांगे करके नही खाना, दूसरे को मारकर नही साना, प्रयोग्य वस्तु नही खाना, दूसरे को भू रखकर स्वयं नही खाना, यह है मनुष्य का धमं ।
प्रथम अर्थ का धर्म स्वभावगत या प्राकृतिक धर्म केवल समझने की वस्तु है । उम मे मले-बुरे का भाव नही प्राता । जब हम कहते हैं देखना खो का धर्म है तब हम इतना ही कहना चाहते हैं विश्रांयों में देखने की शक्ति है | अधिक से अधिक हम यह कह सकते है कि गांखें देखने को उत्सुक होती हैं । सामान्य तौर पर ग्रांखो से देखे बिना नही रहा जाता । लेकिन जब हम कहते है कि अश्लील चीजें प्रांखो मे नही देखनी चाहिये तब हम श्रांखो के प्राकृतिक धर्म मे ऊँचा उठना चाहते हैं । प्रकृति को रोककर, स्वभाव को दवाकर किसी उच्च प्रादर्श को सिद्ध करना चाहते है । श्रखो का जीवन कृतार्थ करना चाहते है । भूख लगे तब खाना, जो मिले सो खाना पशुओ के साथ मनुष्य का भी स्वभाव-धर्म है । किन्तु खाने की वामना के वश होने के पहले सोचना और खाने को किया की योग्यता श्रीर अयोग्यता का खयाल करना यह है मनुष्य का धर्म । और, जैसा कि ऊपर कहा है भूख चाहे जितनी