Book Title: Mahavira ka Jivan Sandesh
Author(s): Rajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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सुधारक में धर्म सुधार
राजा ययाति ने अपने और अपने पुत्र के यौवन का अनुभव करके सम्राट् के लिए सुलभ सारे भोग भोग लेने के बाद यह अनुभव वचन कहा कि जगत में जितने भी चांवल और तिल है, जितने भी ऐश प्राराम के साधन हैं, उन सब को कोई अपना बना ले, तो भी एक के सुखोपभोग के लिए वे पर्याप्त नही होगे, वे उसके मन मे तृप्ति उत्पन्न नही कर सकते । इसलिये स्वय वासना का ही त्याग करके सतोष मानने मे जीवन को सफलता की कुञ्जी है | भगवान् महावीर ने भी लोगो से यही कहा । हिसा के द्वारा दूसरो को दबाने की अपेक्षा तप के द्वारा अपनी वासनाओ को दबाना ही विश्वजित् यज्ञ है । इसी मे जीवन की सफलता और कृतार्थता हे । मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के लोगो के लिए शाप रूप और त्रास रूप बनने के बदले श्राशीर्वाद बने, इसी मे धर्म निहित है । तप के मूल मे यही बात है । तप के विना मनुष्य का जीवन निष्पाप नही बन सकता ।
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जिस प्रकार यज्ञ के जैसे भव्य जीवन- सिद्धान्त को उस समय के लोगो पशुहत्या कर के भ्रष्ट कर दिया, उसी प्रकार उसके बाद के लोगो ने तप के सर्वमगलत्व को भूनकर उसे निरर्थक देह-दमन का रूप दे दिया । सचमुच हमारे देश के लोगों ने महान् से महान् धर्म-सिद्धान्तो को अर्थ - विहीन यात्रिक क्रिया का रूप देकर बहुत बडा बुद्धि-द्रोह और समाज-द्रोह किया है ।
आहार - शास्त्र, जीवन-शास्त्र, प्राणी शास्त्र, समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र, मानस शास्त्र, तर्क शास्त्र आदि मनुष्योपयोगी शास्त्रो का जिन्होने उत्तम और द्यावधि (Up-to-date ) अध्ययन किया है, उन समाज हितैपी लोगो को धर्मशास्त्रो पर वार-वार विचार करना चाहिये और अपने जमाने के स्वजनो का मार्गदर्शन करना चाहिये ।
यदि यह सनातन श्रावश्यकता न होती तो भगवान् बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषो को पुरुषार्थ करके जनता को सनातन धर्म की नये सिरे से दीक्षा देना आवश्यकं नही लगता । धर्मं कितना भी उज्ज्वल क्यो न हो, मानवीय बुद्धि अथवा अर्बुद्धि की जडता के कारण उस पर राख चढ हो जाती है । इस राख को हटाकर तथा प्राचीन धर्म-तत्त्वो का सस्कार कर के धर्म को नये सिरे से गति देने का कार्य प्रत्येक युग मे होता प्राया है इसीलिये धर्म टिका है। धर्म के ग्रन्थ, धर्म के मन्दिर तथा अहिंसा, सत्य और शान्ति