________________
प्रथम अध्याय
विषय-प्रवेश
भारतीय परम्परा की यह विडम्बना रही है कि उसके अधिकांश शलाका-पुरुषों के जीवन चरित के विषय में ऐतिहासिक साक्ष्यों का नितान्त अभाव है | आज हमें उनके विषय में जो कुछ ज्ञात है उसमें अनुश्रुतियों एवं किंवदन्तियों का बाहुल्य है । निर्विवाद तथ्यों के अभाव में उनके प्रादुर्भाव के हजारों साल बाद भी उनका चरित प्रामाणिक एवं सर्वमान्य नहीं हो सका है । जैन परम्परा के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर भी इसके अपवाद नहीं हैं । उनके निर्वाण से सम्बद्ध पावा नगरी की स्थिति आज भी विवादास्पद है और सदैव चर्चा का विषय रही है । निर्वाणस्थली पावा की वास्तविक भौगोलिक स्थिति निश्चित करना ही इस ग्रन्थ का विवेच्य है । चर्चा का आरम्भ हम पावा शब्द की व्युत्पत्ति से करेंगे।
व्युत्पत्ति -
पावा शब्द की व्युत्पत्ति अत्यन्त रोचक है । जिनप्रभसूरि ने 'विविधतीर्थंकल्प" के 'अपापा बृहत्कल्प' के अन्तर्गत 'अपापा' 'पापा', और 'पावा' तीन नामों से इस नगरी का उल्लेख किया है । ग्रन्थकार के अनुसार पूर्वकाल में मध्यमा पापा का नाम अपापापुरी था । शक्रेन्द्र ने पावापुरी नाम किया, क्योंकि यहाँ महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ । इस प्रकार महावीर की निर्वाणभूमि होने के कारण यह स्थली 'अपापा' कही गई' | 'पापा' और 'पावा' इसी अपापा के अन्य नाम हैं । दिव्य ज्योति के अस्त हो जाने के कारण इसका नाम 'पापा' पड़ा । पापों से मुक्ति दिलाने वाली स्थली होने के कारण भी यह पापा नाम से विख्यात हुई - पापात् पाति इति पापा । सम्भवतः प्राकृत भाषा में 'प' का व हो जाने के कारण ही पापा, पावा के
१. विविध तीर्थंकल्प - जिनप्रभसूरि पृ० ४३, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन, सन् १९३४
२. मज्झिमपावाए पुव्वि अपावापुरि ति नामं आसि । सक्केणं पावापुरिति नामं कयं । जेण इत्थ महावीरसामी कालगओ - वही, पृ० ४३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org