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१६ : महावीर निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श
की रचना 'जिणरात्ति" के अन्त में उल्लेख है कि महावीर ने ३० वर्षं तक विहार कर पृथ्वी पर अनिन्ध धर्म को प्रकट किया, फिर पावापुर में आत्मध्यान करके वे मुक्त हुए । उन्होंने अवशिष्ट चारघाती कर्मों का विनाश करके सिद्धालय में निवास किया, तब अमावस्या को दीपावली की गई और चतुर्निकाय देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक की पूजा की ।
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कवि मेघराज कृत 'तीर्थवन्दना ' (१६वीं शती) एवं भट्टारक अभयनन्दि शिष्य सुमति सागर (१६वीं शती) कृत 'तीर्थं जयमाला इन दोनों गुजराती रचनाओं में पावा का महावीर के नगर के रूप में उल्लेख है ।
भट्टारक सुमतिसागर की अन्य कृति 'जम्बूद्वीप जयमाला " में भी जैन तीर्थों के वर्णन के क्रम में पावा के विषय में उल्लेख है ।
काष्ठासंघ नन्दीतत्गच्छ के ही भट्टारक रत्नभूषण के शिष्य जयसागर ( १७वीं सदी) ने गुजराती रचना तीर्थंजयमाला' में पावा का वर्णन किया है ।
काष्ठासंघ नन्दीतटगच्छ के भट्टारक श्री भूषण के शिष्य ज्ञानसागर ( १५७८ - १६५०) की प्रमुख गुजराती रचना 'सर्वतीर्थवन्दना' में पावापुर का उल्लेख प्राप्त होता है
१. दह - तिउण वरिसि
पड़ेवि
विहरिवि जिणेन्दु,
महियालि अणेन्दु
धम्मु वर मज्झहि जिणेसु,
उज्झिवि मुत्ति ईसु ॥
करि विणासु, निवास वासु ।
पावापुर
वेदिग सह
चउसे सह
संपत्तउ
कम्मह
सिद्ध
अलेउ,
देवाहिदेउ ||
अइमणुज्ज
आइवि विरइय
निव्वाणपुज्ज ||
२. सिद्धवीर जिनंद नगर कहु पावापुरीए ॥२॥
देवाली
अम्मावस
महो देउ बोहि चउदेव- णिकायह
३. सुपावापुरि वर वीर मुनीन्द्र ॥ ६ ॥
४. पावापुरि महामुनि जिन कहिया ||३७||
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५. सुवासपूज्य चंपापुरि देव । वड्ढमाण पावापुरि सेव । सुमिरनारि छे नेमिजिणंद । पूजो भवियण परमानन्द ||७||
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