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आत्म-निवेदन : १५
दूसरे यह कि किसी भी स्थल की जानकारी के लिए श्रुति, स्मृति एवं किंवदन्ती का भी सहारा लेना ही पड़ता है केवल इतिहास का ज्ञान पर्याप्त नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी से छन-छनकर जनमानस में व्याप्त स्मृतियों में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ सत्य का अंश अवश्य विद्यमान रहता है, भले ही उसमें काल के प्रवाह से कुछ परिवर्तन हो जाये।
तीसरी बात यह कि गण्डक नदी का इस क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीन युग से ही महत्त्व है और प्राचीन काल में जो भी मार्ग रहे हैं काल-क्रम के दीर्घ अन्तराल के बावजूद वे आज भो विद्यमान हैं। भले ही उनमें गण्डक के प्रवाह में आये परिवर्तनों के फल स्वरूप क्वचित परिवर्तन हुआ है। ____ अपनी उपरोक्त आस्था एवं मान्यताओं के आलोक में यथासामर्थ्य अन्वेषण, विवेचन एवं अनुसन्धान कर वास्तविक पावा को पहचानने और तद्सम्बद्ध भ्रान्तियों के निराकरण का प्रयास किया है। यह कार्य महान् है पता नहीं मैं इसमें कहाँ तक सफल हो पाया हूँ क्योंकि इतिहास मेरा विषय नहीं रहा है। परिस्थितिवश जो भी तथ्य सामने आते गये 'मधुसंचय' न्याय से उन्हें संकलित करता गया। शुद्ध रूप से मैं संकलन कर्ता हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ विगत बीस वर्षों के मेरे अनवरत परिश्रम एवं अध्यवसाय का परिणाम है। इतिहासविद्, पुरातत्त्ववेत्ता एवं अन्य विद्वान् ही इसका निर्णय कर सकेंगे कि मेरा प्रयास कहाँ तक सफल है । प्रमादवश कुछ भूल हो गई हो तो विद्वज्जन मुझे क्षमा करेंगे तथा उसे सुधारने हेतु मुझे सूचित करेंगे । इस महती कृपा के लिए मैं सदैव उनका आभारी रहूँगा।
पावा-अनुसन्धान के लम्बे दौर में मुझे अनेक लोगों से जो सौहार्द एवं सहयोग मिला उनका मैं चिरऋणी हूँ और उनके प्रति आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है। __सर्वप्रथम मैं उन विद्वानों के प्रति सादर भाव से नतमस्तक हूँ जिन्होंने इसके पूर्व इस विषय पर पुस्तकों तथा लेखों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त किये हैं और जिनके अवलोकन एवं उपयोग का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ___मैं माननीय श्री श्रेयांस प्रसाद जी जैन का अत्यन्त अनुग्रहीत हैं जिनकी कृपा से दिगम्बर जैन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर हमारे लेख विद्वानों तक पहुँचे । मैं स्वर्गीय श्री सच्चिदानन्द होरानन्द जी वात्स्यायन अज्ञय, नई दिल्ली, पं० दलसुख मालवणिया अहमदाबाद, डा० एस० पी०
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