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महाप्रज्ञ-दर्शन
केनापि देवेन हृदि स्थितेन
यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि देव तो हमारे हृदय में बैठा है या नहीं, यह संस्कार अवश्य बैठा है कि गलत काम करे बिना जिन्दगी का मजा नहीं आ सकता। बिना झूठ बोले काम नहीं चलता-यह हम मान ही बैठे हैं। मिथ्या को अपरिहार्य/अनिवार्य उपयोगी मान बैठने वाला सम्यक्त्व की आराधना कैसे करेगा ? असली मूर्ख वह नहीं है जिसे मार्ग का पता नहीं है, असली मूर्ख वह है जो मानता है कि ठीक जगह पहुंचने के लिए गलत रास्ते पर चलना जरूरी है। बात सीधी-सादी हैसम्यग्दृष्टि, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र की त्रिपुटी को अपनाये बिना जीवन की कृतकृत्यता तीन काल में भी सम्भव नहीं है। मोक्ष : हमारे जीवन का सहज लक्ष्य
कुछ लोग कहते हैं—हमें मोक्ष नहीं चाहिए। वे मोक्ष का गलत अर्थ लगा बैठे हैं। मोक्ष कोई ऐसा पदार्थ नहीं है जो कहीं लोकाकाश के अन्त में किसी शिला पर रखा हो। यदि ऐसा होता तब तो यह कहा जा सकता था कि हमें मोक्ष नहीं चाहिए। हम सिद्धशिला पर जायेंगे तो मोक्ष मिलेगा और हमें सिद्धशिला पर नहीं जाना। मोक्ष हमसे बाहर कहीं नहीं है, वह हमारा स्वभाव है। हम अपने स्वभाव से छुटकारा नहीं पा सकते अतः मोक्ष हमारे चाहने की चीज नहीं है, वह हमारे शुद्ध अस्तित्व का नाम है। हम चाहें भी तो अपने अस्तित्व को मिटा नहीं सकते, अपने अस्तित्व से छुटकारा नहीं पा सकते। हमारे अस्तित्व का क्या रूप है, यह विवाद मतभेद का विषय हो सकता है किंतु यह कहना कि मुझे अपना अस्तित्व नहीं चाहिए, निरा अज्ञान है, हम असंभव की इच्छा नहीं कर सकते।
हम कुछ भी चाहें, पहले अपने को शुद्ध कर लें। अशुद्ध व्यक्ति की कामना भी अशुद्ध ही हो जाती है। अशुद्ध कामना का फल भी अशुद्ध ही होगा। उदाहरण के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ अध्यात्म के विषय माने जाते हैं। सामान्यतः व्यावहारिक क्षेत्र में इन कषायों से हो सकने वाली विसंगतियों पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। जबकि सच्चाई यह है कि इन कषायों के साथ जीते हुए हमारा सामान्य सामाजिक जीवन भी चल ही नहीं सकता।
क्रोधी व्यक्ति की कामना यही होगी कि उसके सभी विरोधी नष्ट हो जायें। क्रोध क्रोध को उपजाता है। उसके विरोधी भी यही चाहेंगे कि वह व्यक्ति नष्ट हो जाये। अब यदि दोनों की कामनाएं फलित हों तो सुन्द-उपसुन्द न्याय से दोनों ही नष्ट हो जायेंगे।
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